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प्रवचन
अन्तर्द्वन्द्व
कल मैंने बतलाया था, कि मनुष्य के जीवन में अच्छाइयां भी हैं और बुराइयाँ भी हैं । मनुष्य का जीवन-प्रवाह चला आ रहा है, उसमें कोई स्थिति ऐसी नहीं थी, कि वहाँ अच्छाइयाँ कतई न हों। अछाइयाँ हर हालत में रही हैं, पर साथ ही बुराइयाँ भी आती रही हैं।
सच पूछो, तो यही जीवन का द्वन्द्व है, यही संघर्ष है और यह लड़ाई है। हम अपने जीवन में यही लड़ाई लड़ते रहे हैं और अब भी लड़ रहे हैं। इस प्रकार मनुष्य का जीवन एक तरह से कुरुक्षेत्र बना हुआ है। गीता में एक प्रश्न उठाया गया है
धर्म-क्षेत्रे कुरु-क्षेत्रे, समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चंव, किमकुर्वत संजय ॥ धर्मक्षेत्र एवं कुरुक्षेत्र में लड़ने के अभिलाषी जो कौरव और पाण्डव आए, तो हे संजय : उन्होंने क्या किया ?
पह धृतराष्ट्र का प्रश्न है, और इसी प्रश्न के आधार पर सारी गीता खड़ी हो गई । यह प्रश्न कुरु-क्षेत्र के मैदान के विषय में किया गया है । पर वह तो इतिहास की एक घटना थी, जो हुई और समाप्त हो चुकी। किन्तु सबसे बड़ी युद्ध की भूमि, लड़ाई का मैदान तो यह जीवन-क्षेत्र है। इसमें भी कौरव और पाण्डव लड़ रहे हैं !
कौरव और पाण्डव तो भूमि के कुछ टुकड़े के लिए लड़े थे । वह जो भी भली या बुरी घटना थी, उसी युग में समाप्त भी हो गई । पर हमारे जीवन का महाभारत तो अनादि काल से चलता आ रहा है और अब चल रहा है। उक्त महाभारत में हमारा हृदय कुरु-क्षेत्र है और उसमें जो अच्छी और बुरी वृत्तियां हैं, वे कौरव और पाण्डव हैं। उनका जो द्वन्द्व या संघर्ष चल रहा है, वह महाभारत है । पाण्डव अच्छी वृत्तियों के प्रतीक हैं, तो कौरव बुरी वृत्तियों के हैं ।
__ जब तक कोई मनुष्य इस लड़ाई को नहीं जीत लेता और अच्छी वृत्तियां बुरी
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