SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ ब्रह्मचर्य दर्शन ___ 'छान्दोग्य उपनिषद्' में कहा गया है, कि आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि होती है । सत्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल बनती है। स्मृति ताजा बनी रहती है। सात्विक भोजन से चित्त निर्मल हो जाता है, बुद्धि में स्फूर्ति रहती है । भोजन और भोग : भोजन शब्द का प्रयोग यदि व्यापक अर्थ में किया जाए, तो भोग भी भोजन के अन्दर ही आ जाता है । विभिन्न इन्द्रियों के विभिन्न विषय, इन्द्रियों के भोग एवं भोजन ही हैं । क्योकि भोजन और भोग शब्द में मूल धातु एक ही है 'भुज्'। दोनों में केवल प्रत्यय का भेद है । इस दृष्टि से भोजन का व्यापक अर्थ होगा-भोगऔर उसके साधन । 'महाभारत' में विचित्र वीर्य का कथानक यह प्रमाणित करता है, कि अति भोग से विचित्र वीर्य राजा को क्षय का रोग हो गया था। क्योंकि वह बहुत विलासी था। इसी प्रकार अति भोजन भी, भले ही वह सात्विक ही क्यों न हो, स्वास्थ्य को हानि पहुंचाता है । भोजन के सम्बन्ध में साधक को सावधान रहने की बड़ी आवश्यकता है। मांसाहार : ___ आज के युग में मांस, मदिरा और अण्डे का बहुत प्रचार है । आज के मनुष्यों ने यह परिकल्पना करली है, कि उक्त पदार्थों के बिना हम जीवित नहीं रह सकते । किन्तु निश्वर ही यह उनको भ्रान्ति है । सात्विक पदार्थों के आधार पर भी मनुष्य के जीवन का संरक्षण और संवद्धन किया जा सकता है। संसार के अच्छे-से-अच्छे वैज्ञानिकों का मत है, कि मनुष्य को मांसाहारी न होकर शाकाहारी होना चाहिए । हमें यह जानकर आश्चर्य होता है, कि योरोप का प्रसिद्ध कवि शैली शाकाहारी था । प्रकृति के नियम के अनुसार केवल शाकाहार ही उत्तम एवं उपादेय भोजन है । आज का स्वास्थ्य-विज्ञान कहता है, कि भोजन के सम्बन्ध में स्वच्छता की ओर ध्यान दो, किन्तु वह यह ध्यान नहीं देता, कि मांस, अण्डे और मछली खाने वाले लोग स्वच्छ कैसे रह सकते हैं ? एक वैज्ञानिक का विचार है, कि मांस, मदिरा और अण्डे के कारण ही आज के युग में बहुत से रोगों का सूत्रपात हुआ है । मनुष्य स्वस्थ और बलवान होने के लिए मांस खाता है, परन्तु उसे उससे प्राप्त होते हैं वे रोग, जिनकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते । उदाहरण के लिए हम यकृति विद्धा' नामक कीटाणु को ले सकते हैं । यह प्रौढ़ अवस्था में भेड़, गाय, बैल, सूअर एवं बकरी आदि अन्य पशुओं में मिलता है । उक्त पशुओं का मांस खाने वाला मनुष्य, उन कीटाणुओं के प्रभाव से कैसे बच सकता है, जो उनके मांस में रहते हैं ? इस प्रकार हम देखते हैं, कि आज के संसार में जैसे-जैसे मांस, मदिरा आदि तामसिक भोजन का प्रभाव बढ़ा है. वैसे-वैसे मनुष्यों के शरीर में विभिन्न रोगों की उत्पत्ति अधिकाधिक बढ़ी है। मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy