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भोजन और ब्रह्मचर्य
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जाता है, वे प्रायः विलासी, विकारी और गन्दे विचारों से परिपूर्ण होते हैं । उनकी इन्द्रियों हर समय उत्तेजित रहती हैं, मन दुर्विकल्प और विकारों से परिपूर्ण रहता है। उत्तेजना के क्षणों में वे शीघ्र ही भयंकर से भयंकर कार्य कर बैठते हैं, भले ही पीछे कितना ही कष्ट भोगना पड़े और पछताना भी पड़े। आयुर्वेद के अनुसार भोजन हमारे स्वभाव, रुचि और विचारों का निर्माता है।
पशु-जगत को लीजिए । बैल. भैस. घोड़े, हाथी और बकरी आदि पशुओं का मुख्य भोजन घास-पात एवं हरी तरकारियाँ रहता है । फलतः वे. सहनशील, शान्त
और मृदु होते हैं। इसके विसगेत सिंह, चीते, भेड़िए और बिल्ली आदि मांस-भक्षी पशु चंचल, उग्र, क्रोधी और उत्तेजक स्वभाव के बन जाते हैं। इसी प्रकार उत्तेजक भोजन करने वाले व्यक्ति कामी, क्रोधो, झगड़ालू ओर अशिष्ट होते हैं। तामसिक भोजन करने वाले को निद्रा अधिक आती है। आलस्य और अनुत्साह छाया रहता है। वे जोवित भी मृतक के समान होते हैं । राजसी भोजन करने वालों को काम अधिक सताता है, किन्तु सात्विक भोजन करने वालों के विचार प्रायः पवित्र एवं निर्मल बने रहते हैं । सात्विक भोजन ही साधना का आधार है । आयुर्वेद-शास्त्र के अनुसार मुख्य रूप में भोजन के तीन प्रकार हैं-पात्विक, राजसिक और तामसिक । सात्विक भोजन :
__ जो ताजा, रसयुक्त, ह नका, सुपाच्य, पौष्टिक और मधुर हो। जिससे जीवनशक्ति, सत्व, बल, आरोग्य, सुव और प्रीति बढ़ती हो, उसे सात्विक भोजन कहा जाता है। सात्विक भोजन से चित्त की और मन की निर्मलता एवं एकाग्रता ही प्राप्त होती है। राजसिक भोजन :
कड़वा, खट्टा, अधिक नमकीन, बहुत गरम, तीखा, रूखा, एवं जलन पैदा करने वाला, साथ ही दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करने वाला भोजा राजसिक होता है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव मन तथा इन्द्रियों पर पड़ता है । तामसिक भोजन :
मांस, मछली, अण्डे और मदिरा तथा अन्य नशीले पदार्थ तामसिक भोजन में परिगणित किए जाते हैं । इसके अतिरिक्त अधपका, दुष्पक्व, दुर्गन्धयुक्त और बासी भोजन भी तामसिक में है । तामसिक भोजन से मनुष्य की विचारशक्ति मन्द हो जाती है । तामसिक भोजन करने वाला व्यक्ति दिन-रात आलस्य में पड़ा रहता है । इन तीन प्रकार के भोजनों का वर्णन 'गीता' के सतरहवें अध्याय में किया गया है। इन तीनों प्रकार के भोजनों में ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले के लिए सात्विक भोजन ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है।
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