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साधन खण्ड | ४
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भोजन और ब्रह्मचर्य :
ब्रह्मचर्य की साधना के लिए साधक को अपने भोजन पर भी विचार करना चाहिए । भोजन का और ब्रह्मचर्य का पुरस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार यह कहा गया है, कि मनुष्य के विचारों पर उसके भोजन का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है । मनुष्य जैसा भोजन करता है, उसी के अनुसार उसके विचार बनते हैं और जैसे उसके विचार होते हैं, उसी के अनुसार उसका आचरण होता है। लोक में कहावत है कि-' जैसा आहार, वैसा विचार और जैसा अन्न वैसा मन ।' इन कहावतों में जीवन का गहरा तथ्य छुपा हुआ है । मनुष्य जो कुछ और जैसा भोजन करता है, उसका मन वैसा ही अच्छा या बुरा बनता है। क्योंकि भुक्त भोजन से जीवन के मूलतत्त्व रुधिर की उत्पत्ति होती है और इसमें वे ही गुण आते हैं, जो गुण भोजन में होते हैं। भोजन हमारे मन और बुद्धि के अच्छे और बुरे होने में निमित्त बनता है । इसी आधार पर भारतीय संस्कृति में यह कहा गया है, कि सात्विक गुणों की साधना करने वाले के लिए सात्विक भोजन की नितान्त आवश्यकता है । सात्विक भोजन हमारी साधना का आधार है ।
मनुष्य के जीवन की उन्नति तब होती है, जब वह प्राकृतिक रूप से मिलने वाले भोजन से अपने आपको पुष्ट करता रहे। मृदुता, सरलता, सहानुभूति, शान्ति और इनके विपरीत उग्रता, क्रोध, कपट एवं घृणा आदि सब मानव प्रकृति के गुण-दोष प्रायः भोजन पर ही निर्भर करते हैं । जो व्यक्ति उत्तेजक भोजन करते हैं, वे संयम से किस तरह रह सकते हैं ? राजसी और तामसी आहार करने वाला व्यक्ति यह भूल जाता है कि राजस और तामस उसकी साधना में प्रतिकूलता ही उत्पन्न करते हैं। क्योंकि भोजन का तथा हमारे विचारों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । भोजन हमारे संस्कार बनाता है, जिनके द्वारा हमारे विचार बनते हैं । यदि भोजन सात्विक है, तो मन में उत्पन्न होने वाले विचार सात्विक एवं पवित्र होंगे । इसके विपरीत, राजस और तामस भोजन करने वालों के विचार अशुद्ध और विलासमय होंगे। जिन लोगों में मांस, अण्डे, लहसुन, प्याज, मद्य, चाय और तम्बाकू आदि का प्रयोग किया
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