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________________ भोजन और ब्रह्मचर्य यह विचार करता है कि मैं अपने शरीर के बल और शक्ति को सुरक्षित रखने के लिए मांस और अण्डों का सेवन करता हूँ, किन्तु यह उसकी एक भ्रान्ति है । ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक हैं, कि वह शुद्ध एवं सात्विक भोजन का लक्ष्य रखे । तामसिक और राजसिक भोजन ब्रह्मचर्य की साधना में विघ्न उत्पन्न करने वाले हैं । जैन शास्त्र के अनुसार अतिभोजन, स्निग्धभोजन एवं प्रणीत भोजन भी उस साधक के लिए त्याज्य है, जो ब्रह्मचर्य की पूर्ण साधना करना चाहता है । याग-शास्त्र में कहा गया है, कि अति भोजन और अति अल्प भोजन दोनों से योग को साधना नहीं की जा सकती और मशाले भी शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले हैं । भी परित्याग करना चाहिए । । संयम और भोजन : २०३ संयम साधना की बहुत कुछ सफलता, साधक के भोजन पर निर्भर है । संयम की साधना सात्विक भोजन से ही निर्विघ्न रूप से की जा सकती है। कामोत्तेजक पदार्थों के भक्षण से काम को ज्वाला कैसे शान्त की जा सकती है ? जैसे अग्नि में घो डालने से वह और अधिक बढ़ती है, उसी प्रकार उत्तेजक पदार्थों के भक्षण से मनुष्य की कामाग्नि प्रबल वेग से भड़क सकती है । अतः साधना के लिए भोजन का विवेक आवश्यक ही नहीं, परमावश्यक माना गया है । दिवा पश्यति नो घूक:, काको नक्तं न पश्यति । अपूर्वः कोऽपि कामोन्धो दिवानक्त न पश्यति ॥ खटाई, मिठाई, मिर्च अतः साधक को इनका Jain Education International - उपदेशमाला भाषान्तर उलूक दिन में नहीं देख सकता और काक रात में नहीं देख पाता, किन्तु कितनी विचित्र बात है कि कामान्ध मनुष्य न दिन में देख पाता है और न रात में देख पाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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