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________________ १९६ महाचर्यं दर्शन होने से मनुष्य का जीवन अस्त-व्यस्त और खंडित हो जाता है, उसका व्यक्तित्व चकनाबूर हो जाता है । भावनाओं का अन्तर्द्वन्द्व उसे असंयत और लक्ष्य होन बना देता है । जिस मनुष्य की संकल्प-शक्ति में स्थिरता और ध्रुवता नहीं है, वह संसार का कितना ही बुद्धिमान पुरुष क्यों न हो, किन्तु वह अपने ध्येय की पूर्ति किसी भी प्रकार कर नहीं सकता । जिसका विचार ही स्थिर नहीं है, उसका विश्वास और आचार भी स्थिर कैसे होगा ? यदि आप ब्रह्मचर्य की साधना करना चाहते हैं, तो आपको अपने मन की समग्र शक्ति को उसी साधना में केन्द्रित कर देना चाहिए। सूर्य की इतस्ततः बिखरी हुई— फैली हुई किरणों को एकत्र करके आज के वैज्ञानिक जो चमत्कार दिखा रहे हैं, महान कार्य कर रहे हैं, इससे बढ़कर एकाग्रशक्ति का और क्या 'प्रमाण' चाहिए ? अयं की साधना : - ब्रह्मचर्य की साधना के लिए बाहरी साधन अपेक्षित हैं, इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता । परन्तु बाहरी साधनों के अतिरिक्त भीतरी साधन भी परमावश्यक हैं और वे भीतरी साधन संकल्प-शक्ति, इच्छा-शक्ति और मनोबल के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हो सकते । वासना रूपी राक्षसी के क्रूर पंजों से बचने के लिए मनुष्य को अपनी संकल्प-शक्ति को जागृत करना ही होगा। जो वासना से भयभीत हो जाता है, वासना उसे घर दबाती है । उसे पनपने नहीं देती और जीवन का विकास नहीं करने देती । कामरूपी दैत्य से बचने के लिए मनुष्य को सदा जागृत, सचेत और सावधान रहने की बड़ी आवश्यकता है । वासना पर विजय प्राप्त कैसे की जाए, इसके लिए साधक को चार संकल्पों की नितान्त आवश्यकता रहती है । पहला संकल्प : किसी भी आदत को नये सिरे से बनाने अथवा किसी भी बुरी आदत को छोड़ने का पहला नियम यह है, कि अच्छे संकल्प को जीवन में उतारने के लिए अपनी सम्पूर्ण इच्छा-शक्ति से उसे प्रारम्भ करो। उसे पूरा करने में अपने मन का समग्र संकल्प लगा दो । उस नियम और व्रत का पूरी सावधानी से पालन करो। अपने मन में यह विचार करो कि संसार की कोई भी ताकत मुझे इस मार्ग से हटा नहीं सकती । मेरे इस अंगीकृत व्रत को भंग करने की शक्ति, संसार में किसी भी मनुष्य में नहीं है । मैं इस व्रत का पालन अपनी पूरी शक्ति लगा करके करता रहूँगा । वासना की एक भी तरंग मेरे मन को उद्वेलित नहीं कर सकेगी। मैं अनन्त हूँ और मेरी शक्ति भी अनन्त है । फिर मेरी प्रतिज्ञा भी अनन्त क्यों न हो ? कदम-कदम पर मेरे संकल्प को विकल्प में बदलने वाले साधन संसार में विद्यमान हैं । मेरे चारों ओर मेरे विचार को विकार में परिणत करने का वातावरण है, फिर भी मैं इस वातावरण को बदल डालूंगा और अपने ब्रह्मचर्य के संकल्प में किसी प्रकार ढोल न आने दूंगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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