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________________ संकल्प-शक्ति : ध्यान योग दूसरा संकल्प : जब तक नयी आदत पूर्णतया आपके जीवन का अंग न बन जाए, तब तक एक क्षण के लिए भी उसमें शैथिल्य न आने दो। याद रखो, युद्ध-क्षेत्र में छोटी-सी विजय भी आगे आने वाली बड़ी विजय में सहायक होती है और छोटी-सी पराजय भी एक विशाल पराजय को निमन्त्रण देती है। किसी भी व्रत के परिपालन में यदि साधक प्रारम्भ में जागृत नहीं रहता है, तो वह व्रत धीरे-धीरे भग्न होने लगता है। किसी भी व्रत की साधना में ढील करना अपने आपको विनष्ट करना है । पराजय के पक्ष का जरा भी समर्थन किया, कि विजय का भव्य द्वार हमसे कोसों दूर चला जाता है । ध्यान रखो-'बस एक बार और यहीं से और इतने ही से मनुष्य के जीवन का पराजय प्रारम्भ हो जाता है । यह शैथिल्य ही हमारी इच्छा-शक्ति के वृक्ष को काटने वाला है । मनुष्य के मन में इतना तीव्र.संकल्प होना चाहिए कि जिस बुराई को एक बार छोड़ दिया, जीवन में फिर कभी उसका प्रवेश न हो। संसार में रूप एवं सौंदर्य की कमी नहीं है । वह संसार में सर्वत्र बिखरा पड़ा हैं। उसके लुभावने व्यामोह में आसक्त होने वाला व्यक्ति अपने स्वीकृत व्रत के भंग के महादोष से बच नहीं सकता । धीर, गम्भीर और वीर पुरुष वही होता है, जो मुग्ध करने वाले रूप को देखकर भी उसमें आसक्त नहीं होता । तीसरा संकल्प : जिस किसी भी संकल्प को आप अपने जीवन के धरातल पर क्रियान्वित करना चाहते हैं, उसे मज़बूती के साथ पकड़े रहो । मनुष्य के जीवन में अनेक बार ऐसे अवसर आते हैं, जबकि वह अपनी संकल्प-शक्ति को प्रबल बनाकर महान्-से-महान कार्य कर सकता है, परन्तु खेद है कि ज्योंही उसके संकल्प में कुछ भी ढीलापन आता है, तो वह अपने लक्ष्य को भूल बैठता है। किसी भी प्रकार के प्रलोभन में फंसने का अर्थ होता है, अपनी इच्छा-शक्ति का विनाश और अपनी इच्छा-शक्ति के विनाश का अर्थ होता है, अपना स्वयं का विनाश । विषयों का ध्यान करने से विषयों में आसक्ति हो जाती है और उस आसक्ति से कामना और वासना अधिकतर, तीव्रतर और प्रबलतर बन जाती हैं। एक साधक ने पतन के पथ पर अग्रसर होते एक व्यक्ति को उद्बोधन देते हुए कहा है कि-''इस संसार में कदम-कदम पर पतन के कारण उपस्थित हैं, यदि सँभल कर नहीं चलोगे तो कहीं पर भी और विसी भी स्थिति में तुम्हारा भयंकर पतन हो सकता है ।" अतः ब्रह्मचर्य के विकट पथ पर प्रतिक्षण संभल कर चलो, सावधानी के साथ चलो । ब्रह्मचर्य व्रत एक असिधारा व्रत है। उपनिषद् के एक आचार्य ने ब्रह्मचर्य-पथ को 'क्षुरस्य धारा' कहा है । इस धारा पर, इस मार्ग पर जरा सी भी असावधानी मनुष्य को पतन के गहन गर्त में गिरा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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