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________________ ११ कर देता है । अतः कोई भी कुशल इंजीनियर इतनी बड़ी भूल नहीं करता, कि जो देश के लिए खतरा पैदा कर दे ।" उपक्रम यही स्थिति हमारे मन के बाँध की है । वासनाओं के प्रवाह को पूर्णतः नियंत्रण में रखना, यह साधक का परम कर्तव्य है । परन्तु उसे यह अवश्य देखना चाहिए कि उसकी क्षमता कितनी है । यदि वह उन पर पूर्णतः नियंत्रण कर सकता है और समुद्र पायी पौराणिक अगस्त्य ऋषि की भांति, वासना के समुद्र को पीकर पचा सके, तो यह आत्म-विकास के लिए स्वर्ण अवसर है । परन्तु यदि वह वासनाओं पर पूरा नियंत्रण करने की क्षमता नहीं रखता है, फिर भी वह उस प्रचण्ड प्रवाह को बाँधे रखने का असफल प्रयत्न करता है, तो यह उसके जीवन के लिए खतरनाक भी बन सकता है । भगवान महावीर ने साधना के दो रूप बताए हैं - १. वासनाओं पर पूर्ण नियंत्रण, और २. वासनाओं का केन्द्रीकरण । या यों कहिए पूर्ण ब्रह्मचर्य और आंशिक ब्रह्मचर्य । जो साधक पूर्ण रूप से वासनाओं पर नियंत्रण करने की क्षमता नहीं रखता है, वह यदि यथावसर वासना के स्रोत को निर्धारित दिशा में बहने के लिए उसका द्वार खोल देता है, तो कोई भयंकर पाप नहीं करता है । वह उच्छृङ्खल रूप से प्रवहमान वासना के प्रवाह को केन्द्रित करके अपने को भयंकर बर्बादीअधःपतन से बचा लेता है । जैन-धर्म की दृष्टि से विवाह वासनाओं का केन्द्रीकरण है । असीम वासनाओं को सीमित करने का मार्ग है । नीतिहीन पाशविक जीवन से मुक्त होकर, नीतियुक्त मानवीय जीवन को स्वीकार करने का साधन है । पूर्ण ब्रह्मचर्य की ओर बढ़ने परन्तु पशु-पक्षियों की तरह कदम है । अत: जैन धर्म में विवाह के लिए स्थान है, अनियंत्रित रूप से भटकने के लिए कोई स्थान नहीं है । वेश्यागमन और परदार सेवन के लिए कोई छूट नहीं है । जैन धर्म वासना को केन्द्रित एवं मर्यादित करने की बात को स्वीकार करता है और साधक की शक्ति एवं अशक्ति को देखते हुए विवाह को अमुक अंशों में उपयुक्त भी मानता है । परन्तु वह वासनाओं को उच्छृङ्खल रूप देने की बात को बिल्कुल उपयुक्त नहीं मानता । वासना का अनियंत्रित रूप, जीवन की बर्बादी है, आत्मा का पतन है । वासना को केन्द्रित करने के लिए प्रत्येक स्त्री-पुरुष (गृहस्थ ) के लिए यह आवश्यक है कि वह जिसके साथ विवाह बन्धन में बंध चुका हैं या बँध रहा है, उसके अतिरिक्त प्रत्येक स्त्री-पुरुष को वासना की आँख से नहीं, भ्रातृत्व एवं भगिनीत्व की आँख से देखे । भले ही वह स्त्री या पुरुष किसी के द्वारा गृहीत हो या अगृहीत हो, अर्थात् वह विवाहित हो या अविवाहित, विवाहानन्तर परित्यक्त हो या परित्यक्ता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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