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________________ प्रासन १८७ स्थिर कर देना चाहिए । घुटने, पंजे और पाँव की एड़ियां आपस में मिली रहनी चाहिए। आसन के समय ध्यान, भृकुटि में अथवा नासिका के अग्रभाग में रखना चाहिए । आँखें खुली रखनी चाहिए । सिद्धासन: वीर्य सम्बन्धी विकारों को नष्ट करने के लिए. सिद्धासन की बड़ी प्रशंसा है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए यह एक सर्वोत्तम आसन माना गया है। इस आसन से वीर्य स्थिर होता है । गुदा, लिङ्ग तथा पेट की समस्त नाड़ियों में खिंचाव होता है, जिससे उदर-विकार एवं वीर्य-विकार दूर हो जाते हैं । मन को स्थिर करने और प्राण की गति को ठीक रखने में यह आसन बहुत सहायता देता है । ब्रह्मचर्य की साधना में इसका बहुत बड़ा महत्व माना गया है। किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि यह आसन उन्हीं लोगों को करना चाहिए, जो ब्रह्मचर्य की साधना में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं । क्योंकि इससे काम-शक्ति का ह्रास होता है । विधि : पाँव फैलाकर किसी कोमल आसन पर बैठिए, फिर बाएं पैर को मोड़ कर उसकी एड़ी गुदा और अण्डकोष के बीच में मजबूती से जमाइए । ध्यान रहे कि एड़ी बीचोंबीच की नाड़ी सीवनी के ऊपर रहनी चाहिए । बाँए पाँव का तला, दाहिनी जंघा के नीचे रहना चाहिए । अब दाहिने पाँव को मोड़कर उसकी एड़ी को ठीक लिङ्ग के उपरिस्थल भाग अर्थात् लिङ्ग की जड़ पर जमाइए । ध्यान रहे, एड़ी दोनों पाँव की एक सीध में हों । दाहिने पांव का तलवा बाँई जंघा से सटा रहे। पंजा जांघ और पिंडली के बीच में रहे और दोनों हाथ पेट के नीचे एक दूसरे पर रखिए । बांया हाथ नीचे और दहिना हाथ ऊपर । ठोड़ी, कंठ के नीचे जो गड्ढा है उसमें जमी रहे । आंखों को स्थिर कर भृकुटी में देखिए । मन एकाग्र हो। इसका नाम सिद्धासन है। यह आसन कठिन है । इसलिए दो मिनट से आरम्भ करना चाहिए और धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए। स्थान एकान्त, शुद्ध और शान्तिमय होना चाहिए। अर्ष सिद्धासन : यह आसन गृहस्थों के लिए ठीक पड़ता है । इसमें बाएँ पाँव की एड़ी तो गुदा और अण्डकोष के बीच में रहती है, पर दाहिने पाँव की एड़ी लिंग के ऊपर न रखके, जंघा पर ठीक पेट से सटी हुई रहती है । इसको—'अर्ध सिद्धासन' बोला जाता है । इन दोनों प्रकार के आसनों में मेरुदण्ड सीधा रखना होता है । शरीर का सारा बोझ बाई एड़ी पर ही लाना होता है। पद्मासन: __ पहिले पाँव फैलाकर बैठ जाइए, फिर बाँया पर उठाकर दाहिनी जंघा पर और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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