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________________ धर्म-शास्त्र : ब्रह्मचर्य वाह्य वस्तु नहीं है, बल्कि वह मानव-सन की एक पवित्र भावना ही है । भारतीय संस्कृति संयम और ज्ञान में समन्वय स्वीकार करती है। अनेकान्त सिद्धान्त में एकान्त संयम और एकान्त ज्ञान जैसी स्थिति को स्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः धर्म और ज्ञान एक दूसरे का पोषण करते हैं । प्राचार और विचार : भारतीय धर्म-परम्परा में विचार और आचार को समान रूप से जीवन के लिए उपयोगी माना गया है। यदि कोई विचार मानव-मस्तिष्क में उद्भूत होकर आचार का रूप न ले सके, तो वह विचार जीवनोपयोगी विचार नहीं हो सकता, वह केवल बुद्धि का ही शृगार कर सकता है, जीवन का श्रृंगार नहीं । सत् और असत् की विवेचना के बाद सत् का ग्रहण और असत् का परिहार करना ही होता है। शुभ और अशुभ को समझ कर, शुभ का ग्रहण और अशुभ का त्याग आवश्यक है। ज्ञान एवं विवेक हमारे गन्तव्य पथ का प्रकाशन करता है, किन्तु उस आलोकित पथ पर जीवन को गतिशील बनाने के लिए पवित्र चरित्र की आवश्यकता है। विचार आँख है और आचार पाँव । आँख और पांव में जब तक समन्वय न साधा जाएगा, तब तक जीवन-रथ के चक्रों में गति, प्रगति और विकास नहीं आ सकेगा। धर्म और ब्रह्मचर्य : ब्रह्मचर्य एक ऐसा धर्म हैं, जिसकी पवित्रता, पावनता और स्वच्छता से कोई इन्कार नहीं कर सकता। एक बुरे से बुरा व्यभिचारी व्यक्ति भी व्यभिचार का सेवन करने के बाद पश्चात्ताप करता है । इसका अर्थ यह है कि वह वासना के आवेग में बहकर व्यभिचार का पाप तो कर लेता है, किन्तु उसकी अन्तरात्मा उसे इस पाप के लिए धिवकारती है । जब तक मनुष्य के मन में संयम, सदाचार और शील के प्रति आस्था का भाव जागृत नहीं होगा, तब तक ब्रह्मचर्य का पालन करना सरल नहीं है । विश्व के समस्त धर्मों में ब्रह्मचर्य को एक पावन और पवित्र धर्म माना गया है। इसकी पवित्रता से सभी प्रभावित हैं। वैदिक परम्परा में आश्रम-व्यवस्था स्वीकार की गई है । चार आश्रमों में ब्रह्मचर्य सबसे पहला आश्रम है । वैदिक परम्परा का यह विश्वास है कि मनुष्य को अपने जीवन का भव्य प्रासाद ब्रह्मचर्य की नींव पर खड़ा करना चाहिए । ज्ञान और विज्ञान की साधना एवं आराधना, बिना ब्रह्मचर्य की साधना के नहीं की जा सकती। ज्ञान-प्राप्त करने के लिए बुद्धि का स्वच्छ और निर्मल रहना आवश्यक है । किन्तु बुद्धि की निर्मलता तभी रह सकती है, जबकि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया जाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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