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________________ ब्रह्मचर्य-र्शन है, यह एक अजित प्रवृत्ति है। किन्तु भारतीय दार्शनिक एवं विचारक उनकी. इस व्याख्या से सहमत नहीं हैं। क्योंकि भारतीय तत्व-चिंतक धर्म को सदा से ही आत्मा की सहज एवं स्वाभाविक वृत्ति मानते रहे हैं । धर्म शुभ एवं शुद्ध चैतन्य की स्थायी प्रवृत्ति है । वह विकृत तो हो सकता है, किन्तु कभी मिट नहीं सकता। इसलिए धर्म एक शाश्वत एवं अनन्त सत्य है । धर्म और सुख : धर्म और सुख में परस्पर क्या सम्बन्ध है ? यह एक विचारणीय गम्भीर प्रश्न हैं । प्रत्येक युग में इस पर कुछ न कुछ विचार अवश्य ही किया गया है। मनुष्य धर्म इसीलिए करता है कि उसे उससे सुख की प्राप्ति हो। क्योंकि मानव-बुद्धि के प्रत्येक प्रयत्न के पीछे, सुख की अभिलाषा अवश्य रहती है। जब तक कि साधना के उत्कृष्ट कर्तव्यों में किसी को सुख न मिले, तब तक उन्हें अच्छा नहीं कहा जा सकता । धर्मनिष्ठ व्यक्ति को सदा प्रसन्न रहना चाहिए। अरस्तू के मतानुसार आनन्द, मानवीय कार्यों की उचित रूप से पूर्ति करने से उपलब्ध होता है। कार्यों के उचित अभ्यास में आनन्द मिलता है । मनुष्य-जीवन का विशिष्ट कार्य, जो अन्य जीवों से उसका भेद करता है, वह उसकी विचार-शक्ति है। अतः सुख एवं प्रसन्नता की उपलब्धि, धर्म की समुचित साधना में ही है। बुद्धिमय जीवन में स्थायी एवं निष्कलंक चरित्र और धर्मनिष्ठता अन्तभित है। धर्मनिष्ठ जीवन में अमङ्गल एवं अशुभत्व आ नहीं सकता । सुख और आनन्द धर्मनिष्ठ जीवन का सहगामी है । धर्म स्वयं आनन्द नहीं है, बल्कि आनन्द की उपलब्धि में एक परम साधन है । जीवन का आनन्द धर्म पर निर्भर है । आनन्द नैतिक जीवन का उत्कर्ष है । आत्म-लाभ से आत्म-सन्तोष की उपलब्धि होती है । आत्म-लाभ का अर्थ है अपने स्वरूप की उपलब्धि, और यही सबसे बड़ा धर्म है। धर्म और ज्ञान : सुकरात का कथन है कि-"धर्म ज्ञान है।" यदि एक मनुष्य को शुभ के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान हो जाए, तो उसके अनुसरण में वह कदापि असफल नहीं हो सकता । दूसरी ओर यदि किसी को उसका पूर्ण ज्ञान न हो सके, तो वह कदापि नैतिक नहीं हो सकता। इसी आधार पर सुकरात कहता है कि "ज्ञान धर्म है और अज्ञान अधर्म ।" सुकरात का यह कथन कहाँ तक सत्य है, इस तथ्य की मीमांसा करने का यहाँ अवसर नहीं है, किन्तु सुकरात की बात में इतना अन्तस्तथ्य अवश्य है कि धर्म के स्वरूप को ज्ञान के बिना नहीं समझा जा सकता और बिना धर्म की विशुद्ध साधना के सम्यक् ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। जैन-दर्शन के अनुसार जहाँ सम्यक चारित्र होता है, वहाँ सम्यक् ज्ञान अवश्य ही रहता है । ज्ञान क्या वस्तु है ? वह कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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