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________________ धर्म-शास्त्र : ब्रह्मचर्य उत्पन्न होती है। मानव-मन की उक्त जिज्ञासा के समाधान में परम प्रभु भगवान महावीर ने धर्म का स्वरूप बतलाते हुए कहा कि जन-जन में प्रेम-बुद्धि रखना, जीवन की प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपनी सहिष्णुता का परित्याग न करना तथा अपने मन की उद्दाम वृत्तियों पर अंकुश रखना, यही सबसे बड़ा धर्म है। इस परम पावन धर्म की अभिव्यक्ति उन्होंने तीन शब्दों में की-अहिंसा, संयम, और तप । “अहिंसा संजमो तवो।" जहाँ जीवन में स्वार्थ का ताण्डव नृत्य हो रहा है, वहाँ अहिंसा के दिव्यदीप को स्थिर रखने के लिए, संयम आवश्यक है और संयम को विशुद्ध रखने के लिए तप की आवश्यकता है। जीवन में जब अहिंसा, संयम और तपस्वरूप त्रिपुटी का संयोग मिल जाता है, तब जीवन पावन और पवित्र बन जाता है । अतः धर्म मानव-जीवन का एक दिव्य प्रयोजन है। कर्तव्य और धर्म : धर्मनिष्ठ व्यक्ति वह है, जिसे कर्तव्य-पालन का दृढ़ अभ्यास है। जो व्यक्ति संकट के विकट क्षणों में भी अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं करता, उससे बढ़कर इस जगतो-तल पर अन्य कोन धर्मशील हो सकता है। कर्तव्य और धर्म में परस्पर जो सम्बन्ध है, वह तर्कातीत है, वहाँ तर्क की पहुंच नहीं है । कर्तव्य कर्मों के दृढ अभ्यास से अनुष्ठान करने से धार्मिक प्रवृत्तियों का उद्भव होता है। अभ्यास के द्वारा धीरे-धीरे प्रत्येक कर्तव्य, धर्म में परिणत हो जाता है । कर्तव्य, उस विशेष कर्म की ओर संकेत करता है, जिसे मनुष्य को अवश्य करना चाहिए । कर्तव्य करने के अभ्यास से, धर्म की विशुद्धि बढ़ती है । अतः यह कहा जा सकता है कि धर्म और कर्तव्य एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे के विघटक नहीं। क्योंकि धर्म का कर्तव्य में प्रकाशन होता है और कर्तव्य में धर्म की अभिव्यक्ति होती है। धर्म क्या है, इस सम्बन्ध में एक पाश्चात्य विद्वान का कथन है कि, धर्म मनुष्य के मन की दुष्प्रवृत्तियों और वासनाओं को नियंत्रित करने एवं आत्मा के समग्र शुभ का लाभ प्राप्त करने का एक अभ्यास है । धर्म चरित्र की उत्कृष्टता है। अधर्म चरित्र का कलंक है। कर्तव्य-पालन में धर्म का प्रकाशन होता है, इसके विपरीत पापकर्मों में अधर्म उद्भूत होता है । धर्म आत्मा की एक स्वाभाविक वृत्ति है। धर्म का स्वरूप : ___ धर्म के स्वरूप के सम्बन्ध में अरस्तू का कथन है कि-"धर्म एक स्थायी मानसिक अवस्था है, जिसकी उत्पत्ति शुभ संकल्प की सहायता से होती है और जिसका आधार वास्तविक जीवन में सर्वोत्तम है । उसका आदर्श बुद्धि के द्वारा स्थिर एवं नियमित होता है।" पाश्चात्य विचारक कहते हैं कि धर्म नैतिक नियम से संस्थापित स्थायी और अजित प्रवृत्ति अथवा चरित्र है। यह एक नैसर्गिक प्रवृत्ति नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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