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सिद्धान्त खण्ड
धर्म-शास्त्र : ब्रह्मचर्य ___ भारतीय संस्कृति में धर्म को परम मङ्गल कहा गया है । धम्मो मंगल मुविकट्ठ। धर्म को परम मङ्गल कहने का अभिप्राय यही है कि धर्म, मानव जीवन को पतन से उत्थान की ओर ले जाता है। ह्रास से विकास की ओर ले जाता है। भारतीय संस्कृति के मूल में धर्म इतना रूढ़ हो चुका है कि भारत का एक साधारण से साधारण नागरिक भी धर्म-हीन समाज और धर्म-हीन संस्कृति की कल्पना नहीं कर सकता । भारतीय धर्मों की किसी भी परम्परा को लें, उनके समस्त सम्प्रदाय और उप-सम्प्रदाय के भवनों की आधारशिला धर्म ही है। भारतीय ही नहीं, ग्रीक का महान दार्शनिक तथा सुकरात का योग्यतम शिष्य प्लेटो भी, धर्म को Highest Virtue परम मंगल एवं परम सद्गुण मानता है । इसका अर्थ यही है कि धर्म से बढ़कर आत्म-विकास एवं आत्म-कल्याण के लिए अन्य कोई साधन मानव-संस्कृति में स्वीकृत नहीं किया गया है । श्रमण-संस्कृति के शान्तिदूत, करुणावतार जन-जन की
चेतना के अधिनायक, अहिंसा और अनेकान्त का दिव्य प्रकाश प्रदान करने वाले भगवान महावीर ने धर्म के सम्बन्ध में कहा है कि जिस मनुष्य के हृदय में धर्म का आवास है, उस मनुष्य के चरणों में स्वर्ग के देवता भी नमस्कार करते हैं। 'देवा वि तं नमसंति, जस्स घम्मे सया मणों'-वशवकालिक सूत्र । धर्मशील मात्मा के दिव्य अनुभाव की सत्ता को मानने से इन्कार करने की शक्ति, जगतीतल के किसी भी चेतनाशील प्राणी में नहीं है। विश्व के विचारकों ने आज तक जो चिन्तन एवं अनुभव किया है, उसका निष्कर्ष उन्होने यही पाया कि जगत के इस अभेदमय भेद की, और भेदमय अभेद की स्थापना करने वाला तत्व धर्म से बढ़कर अन्य कुछ नहीं हो सकता । परन्तु प्रश्न होता है कि वह धर्म क्या है ? एक जिज्ञासु सहज भाव से यह प्रश्न कर सकता है कि "कोऽयं धर्मः कुतो धर्मः" अर्थात् वह धर्म क्या है, जिसकी सत्ता और शक्ति से कभी इन्कार नहीं किया जा सकता। मानवजीवन के इस दिव्य प्रयोजन से इन्कार करने का अर्थ आत्मघात ही होता है। तथाभूत धर्म के स्वरूप को समझने के लिए प्रत्येक चेतनाशील व्यक्ति के हृदय में जिज्ञासा
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