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मनोविज्ञान : ब्रह्मचर्य
१५६ शक्ति है कि वह पतन से बचकर उत्थान की ओर बढ़ सकता है । जब मनुष्य अपनी काम-शक्ति का उपयोग एवं प्रयोग साहित्य, संगीत, कला एवं अध्यात्म विकास में करता है, तब मनोविज्ञान के पंडित इसे काम-शक्ति का रूपान्तर कहते हैं । देखा जाता है कि बहुत से व्यक्ति, अपना समस्त जीवन राष्ट्र-सेवा एवं समाज-सेवा में लगा देते हैं, जिससे काम-वासना की ओर सोचने का उन्हें कभी अवसर ही नहीं मिलता । एक वैज्ञानिक जब अपने आपको विविध प्रकार के प्रयोगों में तल्लीन कर देता है, तब भोग और विलास की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता । एक कवि जब अपने काव्य-रस में आप्लावित हो जाता है, तब उसका ध्यान वासना की ओर जाता ही नहीं । एक साहित्यकार जब अपनी विविध कृतियों के लिखने में संलग्न हो जाता है, तब उसके मन में काम की स्फुरणा कैसे हो सकती है ? एक संत जब अपने चित्त की शक्ति को अपने ध्येय में एकाग्र करके अध्यात्म साधना में लीन हो जाता है, तब उसके उस निर्मल चित्त में कामना एवं वासना की तरंग कैसे उत्पन्न हो सकती है ? इन उदाहरणों से यह बात स्पष्टरूपतः समझ में आ जाती है कि चित्त की वृत्तियों को सब ओर से हटा कर, जब मनुष्य उन्हें किसी एक विशुद्ध एवं उच्च ध्येय पर एकाग्र कर देता है, तब उस मनुष्य के मन में कभी भी विकार, विकल्प एवं वासनामय बुरे विचार उत्पन्न नहीं होने पाते । मनोविज्ञान के पण्डित मनुष्य जीवन की इस स्थिति को काम-शक्ति का रूपान्तर, काम-शक्ति का ऊर्वीकरण और काम-शक्ति का संशोधन कहते हैं । धर्म-शास्त्र एवं नीति-शास्त्र में, मनुष्य-जीवन की इस स्थिति को ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है । एक दार्शनिक विद्वान ने ब्रह्मचर्य का व्यापक अर्थ करते हुए लिखा है कि अपने मन की बिखरी हुई शक्तियों को सब ओर से हटाकर, किसी एक पवित्र लक्ष्य बिन्दु पर केन्द्रित कर देना ही, वास्तविक एवं सच्चा ब्रह्मचर्य है। शक्ति का शोधन :
मनोविज्ञान का गम्भीर अध्ययन एवं परिशीलन करते हुए ज्ञात होता है कि मानसिक-शक्ति का शोधन (Sublimation) उतना कठिन नहीं है, जितना कि कुछ लोगों ने समझ लिया है। शोधन का अर्थ है -“काम-शक्ति को भोग-विलास में व्यय न करके उसे किसी उच्च कार्य में लगाना।" मनुष्य सभ्यता और संस्कृति के विकास के लिए, जहाँ अन्य अनेक प्रकार के कठोर परिश्रम करता है, वहाँ वह मानसिक शोधन के कार्य को भी भली-भाँति कर सकता है । यह तो निश्चित है कि सभ्यता एवं संस्कृति का निर्माण, काम-भावना से सम्बन्धित शक्ति के रूपान्तर एवं शोधन से आसानी से हो जाता है । क्योंकि बिना इस प्रकार के रूपान्तर और शोधन के मनुष्य अपने जीवन में अपने किसी भी महान् लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर सकता। ब्रह्मचर्य से जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति में आत्म-सम्मान, जन-कल्याण एवं समाज-सेवा का भाव प्रबल रहता है और वह अपनी वीर्य-शक्ति के समुचित प्रयोग से इन कठिनतर कार्यों
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