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________________ ब्रह्मचर्य-दर्शन वीर्यसंरक्षण के महत्व को भली भांति समझ सके । वीर्य-रक्षा करना, जीवन रक्षा के लिए आवश्यक है । जो व्यक्ति अपने वीर्य का व्यर्थ विनाश करता है, वह अपने जीवन में कोई महान् कार्य नहीं कर सकता । वीर्य-संरक्षण ही जीवन-शक्ति है। __ मनुष्य के शरीर में जो कुछ शक्ति एवं बल है, उसका आधार एकमात्र वीर्य ही है । वीर्य के संरक्षण को सभी सिद्धान्तों ने स्वीकार किया है । वह सिद्धान्त, भले ही आध्यात्मिक हो अथवा भौतिक, किन्तु वे इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि वीर्य का संरक्षण आवश्यक ही नहीं, परमावश्यक है । शरीर में दो प्रकार की स्थितियाँ रहती हैं, संचय और विचय । जीवन के प्रारम्भ से लेकर पैंतालीस वर्ष तक संचयशक्ति की अधिकता रहती है और पैतालीस से सत्तर वर्ष तक विचय स्थिति को । संचय का अर्थ है, वीर्य-शक्ति को अभिवृद्धि होते रहना, नया उत्पादन होते रहना । विचय का अर्थ है, वीर्य का ह्रास होना, नया उत्पादन न होना । जैसे-जैसे मनुष्य किशोर, तरुण, प्रौढ़ और वृद्ध होता जाता है, वैसे-वैसे संचय के बाद, विचय बढ़ता जाता है । मनुष्य की शक्ति का ह्रास तथा प्रजा-प्रजनन दोनों एक ही समय में प्रारम्भ होते हैं। प्रजोत्पत्ति के बाद अधिक शारीरिक उन्नति की सम्भावना नहीं रहती, क्योंकि जिस तत्व से शारीरिक उन्नति होती है, वह फिर प्रजा की उत्पत्ति में लग जाता है। शरीर की संजीवन शक्ति के बीज का शरीर से बाहर जाना, निश्चय ही उसकी अवनति है। मनुष्य यह विचार करता है कि मुझे विषय-सेवन से आनन्द मिलता है, किन्तु वास्तव में वह आनन्द नहीं । भविष्य में आने वाली एक भयंकर विपत्ति ही है । वीर्यनाश से ज्ञान-तन्तुओं में तनाव होता है, वह इतना भयंकर होता है कि उसके बुरे परिणामों का लेखा-जोखा नहीं लगाया जा सकता । पशु-विज्ञान के एक डा० ने लिखा है कि-"प्रथम सम्भोग के बाद, बलिष्ठ बैल और पुष्ट घोड़ा भी कभी-कभी संज्ञाहीन होकर जमीन पर गिर पड़ता है । वीर्य-विनाश के बाद की थकान से शरीर में अनेक उपद्रव एवं रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं।" जर्मनी के महान कवि और विचारक 'गेटे' ने कहा है कि-"मृत्यु से बचने के लिए हम प्रजोत्पत्ति की क्रिया बंद नहीं करते, इसलिए उसके अवश्यंभावी परिणाम, मृत्यु से बच नहीं सकते।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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