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________________ शरीर-विज्ञान : ब्रह्मचर्य १५१ है, यह बात दोनों पक्षों को मान्य है । वीर्य का प्रस्रवण दोनों के मत में समग्र शरीर से होता है। ३. यद्यपि भारतीय आयुर्वेद-शास्त्र में अन्तःस्राव और बहिःस्राव जैसे भेद उपलब्ध नहीं होते, तथापि जहाँ तक हमने विचार किया है, हमने यह पाया कि आयुर्वेद में तेजस् एवं ओजस् शब्दों का प्रयोग अन्तःस्राव के लिए, तथा रेतस् और बीज शब्दों का प्रयोग. बहिःस्राव के लिए किया गया है। शुक्र एवं वीर्य शब्द भीतरी एवं बाहरी दोनों स्रावों के लिए प्रयुक्त हो जाते हैं। ४. बहिःस्राव के स्वरूप के विषय में दोनों में अत्यन्त विचार-भेद है। आयुर्वेद में बहिःस्राव के लिए शुक्र-कीटाणु शब्द नहीं पाया जाता, जबकि पश्चात्य विज्ञान में पाया जाता है । आयुर्वेद में केवल शुक्र शब्द का प्रयोग ही होता है । वीर्य की स्थिति और स्वरूप के सम्बन्ध में, शरीर-विज्ञान में एक तीसरा पक्ष भी है। उसका कथन है कि-"वीर्य का नाश मस्तिष्क का नाश है। क्योंकि वीर्य तथा मस्तिष्क दोनों एक ही पदार्थ हैं।" इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि वीर्य और मस्तिष्क को बनाने वाले रासायनिक तत्व एक ही हैं। दोनों की तुलना करने पर, उनमें बहुत हो अल्प अन्तर मालूम पड़ता है। यदि रसायन-शास्त्र से यह बात सिद्ध होजाए कि उत्पादक वीर्य और मस्तिष्क की रचना में कोई भेद नहीं है, तो ब्रह्मचर्य के लिए एक अकाट्य सिद्धान्त तैयार हो जाए। शारीरिक श्रम, मानसिक श्रम एवं अन्य किसी एक कार्य में ही निरन्तर लगे रहने से वीर्य-कीटाणु मस्तिष्क में ही खप जाता है । इसी को भारतीय आयुर्वेद-शास्त्र में ऊर्ध्वरेता कहा जाता है ! स्मरण रखना चाहिए कि उत्पादक पदार्थों का अति मात्रा में व्यय करना, और प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करना मस्तिष्क पर एक प्रकार का अत्याचार है । इससे दिमागी-बीमारी होने की पूरी आशंका रहती है । विचार करने पर अनुभव होता है कि मस्तिष्क का वोयं के साथ और वीर्य का मस्तिष्क के साथ गहनतम सम्बन्ध है । यही कारण है कि वीर्य-नाश का दिमाग पर सीधा प्रभाव पड़ता है। डा० कोवन का कहना है कि मस्तिष्क से एक द्रव उत्पन्न होकर उस ओर को, जिस ओर मनुष्य के मनोभाव केन्द्रित होते हैं, बहने लगता है । डा० हॉल का कथन है कि अण्डकोषों से एक पदार्थ उत्पन्न होकर मस्तिष्क में पहुँचता है, जहाँ से वह यौवनावस्था में अभिव्यक्त होने वाले, समस्त शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों को प्रकट करता है । डा० शैलिंग ने अपनी पुस्तक "Natural Philosophy" में लिखा है कि दिमाग, अण्डकोषों के रस से बना हुआ है । वीर्य स्वरूप के सम्बन्ध में हमने यहाँ तीनों मुख्य विचारों का उल्लेख इसलिए कर दिया; ताकि वीर्य-सम्बन्धी विभिन्न विचारों से प्रभावित प्रत्येक व्यक्ति अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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