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शरीर विज्ञान : ब्रह्मचर्य
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अतः प्रत्येक व्यक्ति को प्रबलः प्रयत्त से बिन्दु को धारणा करना चाहिए।" पुराण कहते हैं--शंकर ने इसी बिन्दु-धारण के आधार से कामदेव को भस्म किया और समुद्र के विष का पान करके भी स्वस्थ एवं जीवित रहे । पाश्चात्य शरीर-विज्ञान :
शरीर-विज्ञान के शास्त्री एवं आधुनिक भौतिक विज्ञान के वेत्ता, वीर्य की अद्भुत शक्ति से एवं उसकी अनुपम महत्ता से इन्कार नहीं कर सकते। पाश्चात्य विद्वानों का वीर्य-विज्ञान के सम्बन्ध में प्रायः वही अभिमत है, जो आयुर्वेद के विद्वानों का रहा है । किन्तु विचार करने की पद्धति और विषय को प्रस्तुत करने की शैली दोनों की अपनी-अपनी है । पाश्चात्य शरीर-विज्ञान के पण्डित वीर्य को सात धातुओं का सार नहीं मानते । उनके कथनानुसार वीर्य सीधा रक्त से उत्पन्न होता है । उनका कथन यह भी है कि वीर्य समग्र शरीर में स्थित नहीं रहता । मनोविकार जिस समय मनुष्य के मन में उत्पन्न होता है, उस समय अण्डकोष अपनी क्रिया द्वारा एक द्रव उत्पन्न करते हैं, और यही द्रव उत्पादक वीर्य कहलाता है । उनका कहना है कि जिस प्रकार उत्तेजक पदार्थ के सम्मुख आने पर आँखों से आँसू तथा मुख से लार टपकती है, उसी प्रकार कामोत्तेजक पदार्थ को देख कर अण्डकोषों को ग्रन्थियों में से वीर्य निकलता है । पाश्चात्य विद्वान इसके दो रूप मानते हैं-अन्तःस्राव और बहिःस्राव । अन्तःस्राव हर समय होता रहता है और शरीर में अन्दर ही अन्दर खपता रहता है। यह रस सम्पूर्ण देह में व्याप्त होकर आँखों को तेजस्वी, मुख को कान्तिमय और शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों को व्यवस्थित और मजबूत बनाता है । चौदह एवं पन्द्रह वर्ष की अवस्था में बालक के.शरीर में जो अचानक परिवर्तन देखे जाते हैं, उनका कारण अन्तः स्राव का अन्दर ही अन्दर खप जाना है । बहिःस्राव के विषय में पाश्चात्यों का यह कथन है कि इसमें शुक्र-कीटाणुओं के साथ-साथ प्रजनन-प्रदेश के अन्य अनेक स्थानों से उत्पन्न हुए स्राव भी मिल जाते हैं । शुक्र-कीटाणु और उन स्रावों के मेल का नाम हो वीर्य है । डा० गार्डनर का कथन है कि-"वीर्य-कीटाणु रुधिर का सारतम भाग है। प्रकृति ने इसे जीवन-शक्ति ही नहीं दी, बल्कि इसमें वैयक्तिक जीवन को समृद्ध करने का जादू भी भर दिया है । इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि शुक्र-कीटाणु के शरीर में खप जाने से समग्र देह में संजीवनी-शक्ति का संचार हो जाता है।" मनुष्य के शरीर की रचना को जानने वाले सभी विद्वान एक मत होकर यह स्वीकार करते हैं कि भीतरी अथवा बाहरी किसी भी वीर्य-शक्ति का ह्रास, मनुष्य की जीवन
सिद्धे बिन्दौ महारत्ने किं न सिध्यति भूतले । यस्य प्रसादान्महिमा ममाप्येतादशोऽभवत् ।।
-शिव-संहिता
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