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ब्राह्मचर्य-दर्शन
हैं । आयुर्वेदशास्त्र में यह भी बतलाया गया है कि, चालीस सेर भोजन से एक सेर रक्त बनता है और एक सेर रुधिर से दो तोला वीर्य बनता है। प्रतिदिन एक सेर भोजन करने वाला मनुष्य एक मास में तीस सेर हो पदार्थ खाता है । इस हिसाब से तीस सेर खुराक से एक मास में डेढ़ तोला वीर्य बनता है । यह है वीर्य के उत्पादन का लेखा-जोखा । आयुर्वेद-शास्त्र में यह भी बतलाया गया है कि जो वीर्य इतनी अधिक साधना एवं परिश्रम के बाद तैयार होता है, उसे वासना-लोलुप मनुष्य किस प्रकार क्षण भर के आवेग में बरबाद कर डालता है। सुश्रुत-संहिता में कहा गया है कि एक बार के स्त्री-सहवास में डेढ़ तोले से कम वीर्य-पात नहीं होता। अब विचार करना चाहिए कि जो महीने भर की कमाई है, उसे एक कामान्ध मनुष्य क्षण भर के आवेग में आकर नष्ट कर देता है, तो पश्चात्ताप के अतिरिक्त उसके हाथ में क्या बच रहता है ? जो मनुष्य अपनी इस अमूल्य शक्ति को इस प्रकार नष्ट करता है, वह संसार में कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता । चरक-संहिता में कहा गया है कि
“वीर्य सौम्य, श्वेत, स्निग्ध, बल और पुष्टिकारक तथा गर्भ का बीज, शरीर का श्रेष्ठ सार और जीवन का प्रधान आश्रय है । यह वीर्य सबके शरीर में उसी प्रकार व्याप्त रहता है, जैसे दूध में घी, और ईख के रस में गुड़ व्याप्त रहता है ।" जैसे दूध में से मक्खन निकालने के लिए, दूध को मथना पड़ता है और ईख में से गुड़ निकालने के लिए ईख को पेलना पड़ता है, वैसे ही एक बिन्दु वीर्य को निकालने के लिए समग्र शरीर को मथना एवं निचोड़ना पड़ता है। जैसे दूध में से घी निकालने के बाद और ईख में से रस निकालने के बाद वे सार-हीन एवं खोखले हो जाते हैं, वैसे ही शरीर में से वीर्य-शक्ति निकल जाने के बाद यह शरीर भी सार-हीन, निस्तेज और खोखला हो जाता है। वीर्य-पतन के बाद मनुष्य के शरीर की सभी नाड़ियाँ ढीली पड़ जाती हैं और उसके शरीर का प्रत्येक अङ्ग शिथिल हो जाता है । आयुर्वेद-शास्त्र यह कहता है कि वीर्य के पतन में ही मनुष्य के जीवन का पतन है और वीर्य के रोकने में ही मनुष्य जीवन का उत्थान है। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि"वीर्य-धारणं हि ब्रह्मचयम्" अर्थात् वीर्य-धारण करना ही ब्रह्मचर्य है। शिव-संहिता में कहा गया है कि "बिन्दु के पात से मरण है और बिन्दु के धारण से ही जीवन है।
६. शुक्र सौम्यं तितं स्निग्धं बल-पुष्टिकरं स्मृतम् ।
गर्भ-बीजं वपुःसारो जीवनाश्रय उत्तमः ।। ७. यथा पयसि सर्पिस्तु गुडश्चेत-रसे यथा ।
एवं हि सकले काये शुक्रं तिष्ठति देहिनाम् ।। ८. मरणं बिन्दु-पातेन जीवनं बिन्दु-धारणात् ।
तस्मादति प्रयत्नेन कुरुते बिन्दु-धारणम् ||
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