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________________ सिद्धान्त - खण्ड शरीर-विज्ञान : ब्रह्मचर्य भारतीय धर्म और संस्कृति में साधना का आधार, शरीर माना गया हैं । शरीर भौतिक है, पंचभूतों से बना है, किन्तु हमारी अध्यात्म साधना में इसका एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । शरीर की शक्ति का केन्द्र है, वीर्य एवं शुक्र । शरीर-विज्ञान में कहा गया है कि मनुष्य के शरीर का तत्व भाग वीर्य है । शरीर के इस महत्वपूर्ण अंश को अन्दर ही खपा कर, उसे किसी रचनात्मक कार्य में लगाना ही, इसका अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी बनाना है । वीर्य के विनाश से, मनुष्य के जीवन का सतोमुखी पतन एवं ह्रास होता है । अतः वीर्य रक्षा की साधना एक महत्वपूर्ण साधना है । - संरक्षण से पूर्व यह समझना चाहिए कि, वीर्य क्या वस्तु है ? वीर्य की उत्पत्ति, स्थिति और सम्पूर्ण शरीर में प्रसृति के विषय में आयुर्वेद शास्त्र एवं पाश्चात्य विज्ञान जो कुछ कहा गया है, अथवा इस विषय पर लिखा गया है, उसका संक्षिप्त परिचय यहाँ पर दिया जा रहा है : प्रायुर्वेद-शास्त्र : भुक्त पदार्थ से पहले जो तत्व बनता है, उसे रस कहते हैं ।" रस से रक्त, रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से वोर्य बनता है । शरीर रूपी यन्त्र में वीर्य निर्माण, सातवीं मञ्जिल पर होता है । इसके बनाने में शरीर को जीवन के लिए आवश्यक अन्य पदार्थों की अपेक्षा अधिक परिश्रम करना पड़ता है । रस की अपेक्षा रक्त में तत्व भाग अधिक है । इस प्रकार उत्तरोत्तर बार भाग बढ़ता ही जाता है । शरीर की भौतिक शक्तियों का अन्तिम सार तत्व, पुरुष में वीर्य एवं स्त्री में रज है । थोड़े से वीर्य को बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में रक्त की आवश्यकता पड़ती है । आयुर्वेद के सिद्धान्त को अनेक पाश्चात्य पण्डितों ने भी स्वीकार किया है । डा० कोवन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में - The science of a new life' में लिखा है कि- “ शरीर के किसी भाग में से यदि चार औस रुधिर १. रसाद् रक्तं ततो मांसं मांसात् मेद स्ततोऽस्थि च । अस्थ्नो मज्जा ततः शुकं Jain Education International २ - श्रष्टांग हृदय, श्रध्याय ३, श्लोक ६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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