________________
१४६
ब्रह्मचर्य - दर्शन
बनने में उससे चालीस,
निकाल लिया जाए, तो वह एक औंस वीर्य के बराबर होता है । चार औंस रुधिर से एक औंस वीर्य बनकर तैय्यार होता है ।" अमरीका के प्रसिद्ध शरीर-विज्ञानशास्त्री मैकफेंडन ने अपनी पुस्तक - 'Manhood and marriage' में उक्त विचार का समर्थन किया है । परन्तु एक शरीर-विज्ञान-शास्त्री कहता है, कि " चालीस औंस रुधिर से एक औंस वीर्य बनता है ।" हो सकता है कि इस विषय में पूरा लेखा-जोखा अभी तक न लग पाया हो, फिर भी इतना तो सत्य है कि थोड़े से भी वीर्य को उत्पन्न करने के लिए रक्त की बहुत बड़ी मात्रा अपेक्षित रहती हैं । भारतीय शरीर - विज्ञान - शास्त्रियों का कहना है कि वीर्य के पचास अथवा साठगुना अधिक रुधिर काम में आ जाता है । जब रुधिर में शरीर को जीवित अथवा मृत बना देने की शक्ति है, तब वीर्य में जो रुधिर का भाग है, वह शक्ति निश्चित रूप में कई गुनी अधिक होनी ही चाहिए। आयुर्वेद का कथन है कि रुधिर से वीर्य की अवस्था तक पहुँचने में सात मञ्जिलें तय करनी पड़ती हैं । इनका पारस्परिक सम्बन्ध क्या है, अन्त में रक्त से वीर्य किस प्रकार बन जाता है, इस विषय पर आयुर्वेद में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इस विषय में अधिक विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही परिचय दिया जा रहा है। आयुर्वेद - शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान वाग्भट्ट ने कहा है कि- “शरीर में वीर्य का होना ही जीवन है। रस से लेकर वीर्यं तक सात धातुओं का जो तेज है, उसे ओजस् कहते हैं । ओजस् मुख्यतया हृदय में रहता है, फिर भी वह समग्र शरीर में व्याप्त रहता है । शरीर में जैसे-जैसे ओजस् की अभिवृद्धि होती है, वैसे-वैसे ही पुष्टि, तुष्टि और शक्ति की उत्पत्ति बढ़ती जाती है । ओजस् के ह्रास से ही मनुष्य का मरण होता है, क्योंकि यह ओजस् ही मनुष्य के भौतिक जीवन का आधार है । इसी से प्रतिभा, मेधा, बुद्धि, लावण्य, सौन्दर्य एवं उत्साह की प्राप्ति होती है । परन्तु प्रश्न है कि यह ओजस् तत्व शरीर में कहाँ से आता है ? इस प्रश्न का समाधान, महर्षि सुश्रुत ने इस प्रकार दिया है3 "रस से शुक्र तक सात धातुओं के परम तेज भाग को ओजस् कहते हैं । यही बल है और
२. श्रोजश्च तेजो धातूनां शुक्रान्ताना परं स्मृतम् ।
देह-स्थिति-निबन्धनम् ।।
हृदयस्थमपि व्यापि यस्य प्रवृद्धौ देहस्य
तुष्टि - पुष्टि - बलोदयाः । यन्नाशे नियतो नाशो यस्मिंस्तिष्ठति जीवनम् || निष्पाद्यन्ते यतो भावा विविधा देह-संश्रयाः । उत्साह - प्रतिभा - धैर्य - लावण्य - सुकुमारताः || - वाग्भट्ट
३. रसादीनां शुक्रान्तानां धातूनां यत्परं तेजस्तत् खल्वोजस्तदेव बलम् ।
- सूत्रस्थान १५, १६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org