SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्राह्मचर्य का प्रभाव १२६ हो । मैं देख लूंगा, कि वह कैसा साधु बनने वाला है । अबकी बार यदि तुझे धमकी दे, तो तू साफ कह देना, कि साधु बनना है, तो बन क्यों नहीं जाते !" इतना कह कर गुरू लौट गए। एक दिन जब फिर वैसा ही प्रसंग आया, तो युवक ने कहा-“इससे अच्छा, तो में साधु ही न बन जाऊँ।" पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार, स्त्री ने कह दिया कि रोज-रोज साधु बनने का डर दिखलाने से क्या लाभ है ? आपको साधु बनने में ही सुख मिलता हो, तो आप साधु बन जाइए । मैं किसी न किसी तरह अपना जीवन चला लूगी।" इस पर युवक ने कड़क कर कहा-"अच्छा, यह बात है, तो अब मैं ज़रूर साधु बन जाऊँगा।" यह कह कर वह घर से निकल पड़ा और आवेश में सीधा समर्थ गुरू रामदास के पास जा कर बैठ गया। बहुत देर तक बैठा रहा । आखिर, अपना अभिप्राय गुरु चरणों में निवेदन किया। रामदास ने प्रसन्न भाव से कहा, बहुत अच्छा । और अपने काम में लग गए। भोजन का समय हो चुका था, युवक भूख से तिल मिलाने लगा । लाचार होकर उसने गुरू से कहा-"आज आहार लेने क्यों नहीं पधारे ?" गुरू ने कहा- "आज चेला आया है, इस कारण हमें बड़ी प्रसन्नता है । आज आहार नहीं लाना है, शिष्य-प्राप्ति की खुशी में व्रत रखेंगे।" युवक के लिए तो एक-एक पल, पहर की तरह कट रहा था। उसने कहा"गुरुदेव, भूख के मारे मेरी तो आंतें कुल-बुला रही हैं। अपने लिए नहीं, तो मेरे लिए ही कुछ भोजन का प्रबन्ध कर दीजिए।" रामदास जी ने कहा--"अच्छा, नीम के पत्ते सूत लाओ और उन्हें अच्छी तरह पीस कर गोले बना लो।" युवक ने आज्ञानुसार नीम के पत्त पीस कर गोले (लड्डू) बना लिए । वह सोचने लगा-"नीम खाने की चीज तो है नहीं । किन्तु गुरू योगी हैं, उनके प्रभाव से कड़वें गोले मीठे बन जाएँगे।" गोले तैयार हो गए तो गुरू ने कहा-"अब तुम्हें जितना खाना हो खा. लो। बहुत अच्छी चीज है, तुम्हें आनन्द आएगा।" युवक ने प्रसन्न मन से ज्योंही एक गोला मुंह में डाला, तो कड़वा जहर, वमन हो गया । गुरू ने कहा-“दूसरा उठा कर खाओ। और यदि फिर वमन किया, तो देखना, यह डंडा तैयार है । यहाँ तो रोज़ यही खाने को मिलेगा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy