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________________ १२८ ब्रह्मचर्य-दर्शन जानते हैं, कि जहाँ नामी गुरू आते हैं, वहां भक्त भी पहुँच ही जाते हैं। एक युवक व्यापारी था, और अच्छे घर का लड़का था । वह और उसकी पत्नी रामदासजी के भक्त हो गए और प्रतिदिन उनके आध्यात्मिक उपदेश सुनने लगे। इधर आध्यात्मिक उपदेश सुनते थे, और उधर घर में यह हाल था, कि खाने के लिए रोज़ लड़ाई होती थी। युवक चटोरी प्रकृति का था। किसी दिन रोटी सख्त हो गई, तो कहता 'रोटी क्या है, यह तो पत्थर है।' जरा नरम रह गई, तो बोलता-'आज तो कच्चा आटा ही घोल कर रख दिया है।' इस प्रकार पति-पत्नी में प्रतिदिन संघर्ष मचा रहता था। एक दिन भोजन के सम्बन्ध में कहासुनी होते समय, युवक ने रोष में कहा-"इससे तो साधु बन जाना ही अच्छा है।" युवक ने जब यह बात कही, तो उसकी पत्नी डर गई। उसे ख्याल आया कि कहीं सचमुच ही यह साधु न बन जाएँ । भोजन के प्रश्न पर फिर किसी दिन कहा-सुनी हो गई। अब की बार युवक ने क्रोध में आकर थाली को ऐसी ठोकर लगाई कि रोटी कहीं और दाल कहीं जाकर पड़ी। "बस, भोग चुके गृहस्थी का सुख । हाथ जोड़े इस घर को। अब तो साधु ही बन जाना है"---यह कहता हुआ घर से बाहर हो गया। इस प्रकार वह घर से निकला और सीधा बाज़ार का रास्ता नापता हुआ हलवाई की दुकान पर पहुँचा। वहां उसने खूब पेट भर कर मिष्टान्न खाए। मगर बेचारी स्त्री के लिए यह समस्या कितनी कठिन थी? युवक ने तो बाजार में खूब मजे से अपना पेट भर लिया, मगर स्त्री बेचारी क्या करती ? वह उसके बिना खाए कैसे खाती ? उसे भूखा रह कर ही दिन गुजारना पड़ा। । दूसरी बार फिर भी इसी प्रकार की घटना घटी । संयोगवश उस दिन समर्थ गुरु रामदास भी वहाँ पहुँच गए। उन्हें देख कर स्त्री ने सोचा-"कहीं इन्हीं के पास न मुंड़ जाएं"-और वह जोर-जोर से रोने लगी। गुरु विचार में पड़ गए । स्त्री फबक-फबक रो रही थी। और जब उन्होंने रोने का कारण पूछा, तो वह और ज्यादा रोने लगी । गुरू ने कहा-"आखिर बात क्या है ? घर में तुम दो प्राणी हो और वर्षों से साथ-साथ रह रहे हो। फिर भी दृष्टिकोण में मेल क्यों नहीं बिठा सके।" तब स्त्री ने कहा-"उनको मेरे हाथ का बना खाना अच्छा नहीं लगता है, और कहते हैं, कि वह साधु बन जाएंगे।" गुरू ने यह बात सुनी तो कहा-"तुम यह डर तो मन से निकाल दो। क्योंकि मियाँ की दौड़ मस्जिद तक ही है । साधु बनने के लिए, आएगा तो मेरे पास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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