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ब्राह्मचर्य का प्रभाव
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भोजन और सात्विक भी मर्यादा से अधिक खा लेने से शरीर का रक्त खौलने लगता है और शरीर में गरमी आ जाती है। शरीर में गरमी आ जाने पर मन में भी गरमी आ जाती है। मन में गरमी आ जाती है, तो साधक भान भूल जाता है। जब भान भूल जाता है, तब साधना के सर्वनाश का दारुण दृश्य उपस्थित हो जाता है।
आज का चौका देखो, तो मालूम होता है, कि घर के लोग खाने के सिवाय और कुछ भी नहीं जानते हैं । दुनिया भर का अगड़म-बगड़म वहां मौजूद रहता है । ऐसे अवसर भी देखने में आये हैं कि यदि सन्त वहाँ पहुँच गए और आग्रह स्वीकार कर लिया, तो उन चीज़ों को लेने-देने में सहज ही आधा घंटा लग गया ।
___ अभिप्राय यह है, कि मनुष्य ने स्वाद के लिए अनेकविध आविष्कार कर लिए हैं । भोजन के भांति-भाँति के रूप तैयार कर लिए हैं। यह सब पेट के लिए नहीं, जीभ के लिए, स्वाद के लिए तैयार किए हैं । यह चार अंगुल का मांस का जो टुकड़ा (जीभ) है, उसका फैसला ही नहीं हो पाता । नाना प्रयत्न करने के पश्चात् भी जीभ सृप्त नहीं हो पाती । जीभ की आराधना के लिए मनुष्य जितना पचता है, और प्रयत्न करता है, उसका आधा प्रयत्न भी अगर वह जीवन या जन-कल्याण के लिए करे, तो उसका कल्याण हो जाए । मगर इतना प्रयत्ल करने पर भी वह कहां सन्तुष्ट होती है ? वह तो जब देखो तभी लार टपकाती रहती है, अतृप्त ही बनी रहती है । मनुष्य मांस के इस जरा से टुकड़े की तृप्ति के पीछे अपनी सारी जिन्दगी को बर्बाद कर देता है।
बचपन के दिन निकल जाते हैं, जवानी भी आकर चली जाती है, और बुढ़ापे के दिन आ जाते हैं, तब भी बचपन की वृत्तियों से छुटकारा नहीं मिलता है। बुढ़ापे में भी खाने के लिए लड़ाइयाँ मची रहती हैं, संघर्ष होते हुए देखे जाते हैं।
यह स्थिति देखकर विचार होता है, कि साठ-सत्तर वर्ष की लंबी जिन्दगी में मनुष्य ने क्या सीखा है ? कभी-कभी पुराने संतों को भी हम जिह्वा-वश-वर्ती हुमा देखते हैं। आहार आया और उनके सामने रख दिया गया। वे कहते हैं क्या लाए ? कुछ भी तो नहीं लाए।' बुढ़ापे में भी जिसकी यह वृत्ति हो, उसने जीवन के बहुमूल्य सत्तर वर्ष व्यतीत करने के बाद भी क्या पाया है ? रोटी आई है, दाल-शाक आया है, फिर भी कहते हैं, कुछ नहीं आया । इसका अर्थ यह है, कि पेट के लिए तो सब कुछ आया है, पर, जीभ के लिए कुछ नहीं आया।
इस चार अंगुल की जीभ पर नियंत्रण न कर सकने के कारण ही कभी-कभी मुसीबत का सामना करना पड़ता है। जीभ के सम्बन्ध में जब विचार करते हैं, तब एक बात याद आ जाती है ।
समर्थ गुरु रामदास वैष्णव सन्त थे। उन्होंने एक जगह चौमासा किया । आप
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