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________________ ब्रह्मचर्य दर्शन युवक ने कहा--"महाराज, यह तो नीम है, कड़वा ज़हर ! इसे आदमी तो नहीं खा सकता।" समर्थ रामदास ने एक लड्डू उठाया और मधुगोलक की तरह झट-पट खा लिया। युवक ने कहा-"आप तो खा गए, पर मुझसे तो नहीं खाया जा सकता।" गुरू ने कहा-"क्यों, इसी बल पर साधु बनने चला है ? अरे मूर्ख, व्यर्थ ही उस लड़की को क्यों तंग किया करता है ? तू साधु बनने का ढोंग क्यों करता है ? इस तरह साधु बन कर भी क्या करेगा ? साधु बन गया और बाद में गड़बड़ की तो ठीक नहीं होगा । जीभ के चटोरे साधु कैसे बन सकते हैं ?" अब युवक की अक्ल ठिकाने आई । वह चुपचाप घर लौट आया। फिर उसने यह देखना बन्द कर दिया, कि रोटी सख्त है या नरम है, कच्ची है या पक्की है । चुपचाप शान्त भाव से, जैसा भी और. जो भी मिलता, खाने लगा। जिनके घर में खाने-पीने के लिए ही महाभारत का अध्याय चला करता है, वे भला ऊँचे जीवन की साधना कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? अतएव जो साधना करना चाहते हैं, उन्हें खान-पान की लोलुपता को त्याग देना चाहिए, और आवश्यकता से अधिक भी नहीं खाना चाहिए । हे मनुष्य, तू खाने के लिए नहीं बना है, किन्तु खाना तेरे लिए बना है व तुझे भोजन के लिए जीना नहीं है, जीने के लिए भोजन है । भोजन तेरे जीवन-विकास का साधन होना चाहिए। कहीं वह जीवन-विनाश का साधन न बन जाए। इस प्रकार कान और आँख के साथ-साथ जो जीभ पर भी पूरी तरह अंकुश रखते हैं, वे ब्रह्मचर्य की साधना कर सकते हैं। जो अपनी जीभ पर अंकुश नहीं रखेगा, और स्वाद-लोलुप होकर चटपटे मसाले आदि उत्त जक वस्तुओं का सेवन करेगा, जो राजस और तामस भोजन करेगा, उसका ब्रह्मचर्य निश्चय ही खतरे में पड़ जाएगा। ब्रह्मचर्य की साधना जितनी उच्च और पवित्र है, उतनी ही उस की साधना में सापानी की भी आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता है और मनोनिग्रह की भी आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य के साधक को फूंक-फूक कर पैर रखना पड़ता है। यही कारण है, कि हमारे यहां शास्त्रकारों ने, ब्रह्मचारी के लिए अनेक मर्यादाएँ बतलाई हैं । शास्त्र में कहा है मालमो यौवनाइन्नो, थो-कहा य मणोरमा । संपवो बेब बारी, लेसिमिविय-वंस । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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