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ब्रह्मचर्य दर्शन
वासनाओं का शिकार बन कर बेदर्दी के साथ उन सब रुपयों को फूँक देता है और आखिर गलियों का भिखारी हो जाता है, तो अपना सा मुँह लेकर घर वापिस लोटता है ।
देखते हैं, कि ब्रह्मचर्य के रूप में, गृहस्थ जीवन की जो मर्यादाए हैं, उनकी ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है । लड़के क्यों भागते हैं ? क्यों उन्हें अपने और अपने परिवार की प्रतिष्ठा का ध्यान नहीं आता ? यह सब संयम के अभाव का फल है ।
हमारे सामने आज सिनेमा खड़े हैं, और वे वासना का जहर बरसा रहे हैं । उनमें से शिक्षा कुछ नहीं आ रही है, केवल वासनाएँ आ रही हैं । प्रायः हरेक चित्रपट का यही हाल है । नवयुवक किसी डाकू का चित्र देखते हैं, तो डाकू बनने की, और किसी प्रेमी तथा प्रेमिका का चित्र देखते हैं, तो वैसा बनने की कोशिश करते हैं ! अधिकाँश सोचते हैं कि बम्बई में जाएँगे, फ़िल्म कम्पनियों में जाएँगे और वहीं काम करेंगे । मगर फ़िल्म- कम्पनियों के दफ्तरों के आस-पास इतने नवयुवक, चीलों की तरह मँडराते हैं कि इन जाने वालों को कोई पूछता तक नहीं है। दुर्भाग्य है कि यह रोग लड़कों तक ही सीमित नहीं रहा । आज तो अबोध लड़कियाँ भी इस रोग की पकड़ में हैं । लड़के ही नहीं भागते, लड़कियाँ भी भागती फिरती हैं ।
समाज के जीवन में यह एक घुन लग गया है, जो उसे निरन्तर खोखला करता जा रहा है और इस कारण हमारा जो आध्यात्मिक और विराट जीवन बनना चाहिए, वह नहीं बन रहा है ।
नारी जाति को ओर ध्यान देते हैं, तो देखते हैं कि पवित्र नारी जाति आज वासना की पुतली बन गई है । जहाँ भी बाजारोंमें देखते हैं, उनकी अधनंगी तसवीरों का अभिनेत्री के रूप में गन्दा विज्ञापन मिलता है । नारी जाति का मातृत्व और भगिनीत्व उड़ गया है, और केवल एक वासना का नग्न रूप रह गया है ।
आज करोड़ों रुपया सिनेमा के व्यवसाय में लगा हुआ है और करोड़ों रुपया सिनेमा में काम करने वालों में बर्बाद किया जा रहा है । आज भारतवर्ष के सबसे बड़े नागरिक डाक्टर राजेन्द्र बाबू हैं । राष्ट्रपति के रूप में उनके कन्धों पर कितना उत्तरदायित्व है, यह कहने की कुछ आवश्यकता नहीं । किन्तु उनको जो वेतन मिलता है, उससे कई गुना अधिक सिनेमा के 'स्टार' को और 'हीरो' को मिलता है । बताया गया है, कि सिनेमा-स्टार सुरैया को अस्सी हजार हर महीने मिलते हैं । और काम ? वह महीने में केवल चार दिन करना पड़ता है, शेष दिन मौज में गुज़रते हैं ।
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