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विराट-भावना
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सकते हो । पर, अब ऐसा क्या हो गया है, कि अपने मन में अलग होने की ठानी है ? आखिर, संघर्ष किस बात का है ?"
वह कहने लगा- " अब बनती नहीं है, कैसे साथ रहा जाए ।" मैंने पूछा - " तो पहले कैसे बनती थी ?"
वे व्यर्थ ही हिस्सेदार
मोटर हार्न देती हुई. आप ही उसका उप
आखिर जब मन के अन्दर की बात बाहर आई, तब वास्तविकता का पता लगा । वह महसूस करता था कि “मैं तो कमा रहा हूँ और बनते जा रहे हैं । अलग हो जाएँगे, तो घर के दरवाजे पर आएगी और अपनी कमाई के आप ही पूरे हिस्सेदार होंगे और भोग करेंगे ।" मैंने सोचा- - "जो धन अनीति का होगा और जो रावण के आदर्श की प्रेरणा लेकर कमाया जाएगा; वहाँ उदारता, सहानुभूति और प्रीति नहीं रहेगी । उस धन का असर ऐसा ही होगा ।"
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एक व्यक्ति का यह दोष नहीं है, यह तो आज समाज-व्यापी दोष बन गया है। और इसलिए बन गया है, कि जीवन की विराट कल्पना को लोग भूल गए हैं। संयम का आदर्श उनके सामने नहीं रहा है ।
मुझे एक पिता की बात याद आती है। पिता कमाते - कमाते थक गया । उसने न नीति गिनी, न अनीति गिनी, केवल कमाई गिनी । और जब लड़के आए तो ऐसे आए कि माल उड़ाने लगे। उसके संचित धन को बर्बाद करने लगे । वह एक दिन मेरे पास आकर कहने लगा- "महाराज, मैंने दुनियाँ भर के पाप करके धन जोड़ा और छोकरे उसे उड़ाए दे रहे हैं ।"
मैंने कहा - "तुमने लाभ ही लाभ पर ध्यान दिया, दिया । वह धन अनीति की राह से आया है, तो अनीति की है । तुम्हारी कमाई का हेतु उन्हें साफ नजर नहीं आ रहा है, लड़के उसे पानी की तरह वासना में बहा रहे हैं, और तुम दिल मसोस कर रह रहे हो । तुमने कभी ध्यान नहीं दिया, कि पैसा किस तरह आ रहा है ? हजारों के आंसू पौंछ कर आ रहा है या आँसू बहा कर आ रहा है ? फिर यह भी तो नहीं सोचा, कि जो पैसा आया है, उसका शुद्ध रूप में उपयोग किस प्रकार किया जाय ?
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शुभ पर राह पर
ध्यान नहीं ही जा रहा
इसी कारण तुम्हारे
यह जीवन का एक महान् प्रश्न बन गया है । बड़े-बड़े शहरों में देखते हैं और सुनते हैं, कोई महीना खाली नहीं जाता, जब कि अख़बारों में पढ़ने को न मिलता हो, कि किसी भले घर का लड़का भाग गया है । जब वह भाग जाता है, तब पिता हैरान होते हैं और अख़बारों में हुलिया छपाते हैं । इधर गल्ला सँभालते हैं, तो मालूम होता है कि हजार दो हजार के नोट गायब हैं । वह लड़का बम्बई जैसे बड़े नगरों में
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