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ब्रह्मचर्य वशन विवाह करके लौटा ही है, किन्तु अभी सुदूर देशों में जाने वाले काफिले के साथ जा रहा है, और आ रहा है बारह बारह वर्ष के बाद । नये-नये देश होते हैं, नये-नये प्रलोभन होते हैं, वासना-पूर्ति के स्वयं ही नये-नये अवसर आते हैं, परन्तु वह तरुण सर्वत्र निर्मल एवं निष्कलंक रहता है। जीवन पर एक भी काला धब्बा नहीं लगने देता है । उधर उसकी तरुण पत्नी जीवन की ऊँचाई पर बैठी है और सती साध्वी के रूप में निर्मल जीवन-यापन कर रही है। कितना सुन्दर था वह जीवन, कितने ऊँचे थे उनके वे आदर्श!
भारत का व्यापारी जब तक इस रूप में रहा, भारत का निर्मल चिन्तन बढ़ता गया और देश एवं समाज का नव-निर्माण होता रहा । किन्तु आज के व्यापारी क्षुद्र-धेरे बंदी में चल रहे हैं, और एक प्रकार से तलइय्याओं का गन्दा पानी पी रहे हैं, जिनमें हजारों विषाक्त कीटाणु हैं, जो जीवन को प्रतिपल क्षीण बनाने वाले हैं । किन्तु फिर भी उसे पोते जा रहे हैं और समझते हैं, कि हम बहुत लक्ष्मी इकट्ठी कर रहे हैं। कैसे कर रहे हैं, और किस लिए कर रहे हैं, इसका कुछ पता ही नहीं है।
अपने पूर्वजों की ओर देखोगे, तो उनके समक्ष क्षुद्र कीड़ों के समान मालूम हो ओगे । जो लक्ष्मीके पुत्र हैं, और दीपावली के दिन कल्दारोंके ऊपर मत्था टेकने वाले हैं तथा जो दूकानों में 'शुभ, लाभ' लिखने वाले हैं, वे कभी सोचते भी हैं कि 'लाभ' से पहिले शुभ' क्यों लिखते हैं ? इसका अर्थ तो यह है, कि जीवन में जो लाभ हो, वह शुभ के साथ होना चाहिए । उस लाभ को अगर खर्च किया जाए तो शुभ में ही खर्च किया जाए और जब प्राप्त किया जाए तब शुभ प्रयत्नों से जन-कल्याण का ध्यान रखते हुए ही प्राप्त किया जाए, तभी वह लाभ शुभ लाभ हो सकता है । लेकिन अब तो वह केवल लिखने के लिए ही रह गया है और जीवन में कोरा लाभ ही शेष रह गया है, उसमें शुभ के लिए कोई गुजाइश नहीं रह गई है ।
___मैं यह बतलाना चाहता हूँ, कि जीवन में महान् प्रेरणाएं क्यों नहीं आ रही हैं ? क्यों अपनी सन्तान के प्रति और अपने भाइयों के प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है ? मुझे मालूम है कि युद्ध-काल में एक व्यापारी ने बहुत ज्यादा कमाया। छोटा भाई, जो धूर्तता की कला में कुशल था और जिसका दिमाग खूब तेज़ था उसने खूब कमाई की। एक दिन वह अपने बड़े भाई से कहने लगा-"मैं तो अब अलग होता हूँ।"
उसके बड़े भाई विचार में पड़ गए और घर में संघर्ष होने लगा । ऐसी हवाएँ कभी-कभी हमारे पास भी आ जाती हैं। एक दिन मैंने उस-कमाऊ भाई से कहा--"भाई, पहले भी जीवन के दिन परिवार में सबके साथ-साथ गुजारे हैं, तो अब भी गुज़ार
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