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________________ १०८ ब्रह्मचर्य दर्शन जो जितना स्वाध्यायशील होता है, जो महान् आचार्यों के आदर्श की ओर ध्यान लगाता है, जो निरन्तर विराट बनने की कल्पना को अपने सामने रखता है और जो महान् शास्त्रकारों के शास्त्रों और भाष्यों को पढ़ने की योग्यता प्राप्त कर लेता है, उनके पवित्र सौरभ को सूचने के योग्य अपने आपको बना लेता है, वही जीवन में सन्तोष एवं शान्ति प्राप्त कर सकता है। फिर जो जवानी की तूफानी हवाएं चलती हैं, और साधारण मनुष्य को सहसा घेर लेती हैं; नहीं घेर सकेंगी । जवानी का तूफान एक बार निकला, तो निकला। ___ मैं एक जगह गया था। वहाँ मैंने कुछ नौजवान साधुओं को देखा, जिन्होंने दोचार वर्ष पहिले दीक्षा ली थी। मैंने देखा कि कोई उर्दू की शेर याद कर रहा है, कोई चौपाई रट रहा है, कोई दृष्टान्त घोंट रहा है और कोई दोहे कंठस्थ कर रहा है । मैंने उनसे कहा, कि-"यह क्या कर रहे हो? तुम जीवन-निर्माण के महान् क्षेत्र में आए और यह कबाड़ी की दूकान लगा कर बैठ गए । तुम उच्च कोटि के प्राकृत और संस्कृत भाषा के साहित्य का, इस उम्र में अध्ययन नहीं करोगे, तो क्या बुढ़ापे में करोगे? यह तुम्हारा क्ष द्र उपक्रम ज्ञान-साधना में क्या काम आएगा? यह ठीक है, कि समय पर इनका उपयोग किया जा सकता है । किन्तु इन सबको अभीसे लेकर बैठ जाना, तो अपने विकास के पथ में पहले ही दीवाल खड़ी कर लेना है। यदि आपको उस दिव्य-जीवन की ओर चलना है, तो विराट भावना लेकर आगे बढ़ो। इस प्रकार के क्षुद्र संकल्पों से उस ओर नहीं बढ़ा जा सकेगा।" आप लोगों ( श्रावकों) की ओर से ऐसे मुनियों को समय से पहले ही प्रतिष्ठा मिल जाती है । आप उन्हें बहुत जल्दी 'पण्डितरत्न' और इससे भी बड़ी-बड़ी उपाधियाँ दे डालते हैं, तो उनके विकास में बाधा पड़ जाती है। अनायास मिली हुई सस्ती प्रतिष्ठा उन्हें आत्मविस्मृत बना देती है । वे समझने लगते हैं, कि वास्तव में वे इतने योग्य बन गए हैं, कि अब आगे कदम बढ़ाने की कोई आवश्यकता ही उनको नहीं रह गई है। इसमें साधुओं का, जो अपनी वास्तविकता को भूलते हैं, दोष तो है ही, किन्तु आपका भी दोष कम नहीं है । जब तक इस भूल को भूल नहीं समझ लिया जाएगा, और इस स्थिति में परिवर्तन नहीं लाया जाएगा, तब तक साधु-समाज में वह विराट महत्ता नहीं आ सकती, जिसे उनमें आप देखना चाहते हैं, और उनसे जिसकी अपेक्षा रखी भी जाती है । हालत आज यह है, कि हमारे सामने गृहस्थ समाज के जो युवक आते हैं, वे अध्ययन में, चिन्तन में और विचार में इतने आगे बढ़ गए हैं, कि साधु उनसे पीछे रह गए हैं, जो महावीर, गौतम और जिनभद्र आदि की गद्दी पर बैठे हैं । इस प्रकार सुनने वाले ऊँचे हैं और सुनाने वाले नीचे रह गए हैं । इस स्थिति में उनकी आवाज सुनने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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