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________________ विराट-भावना १०७ यूरोप के एक वैज्ञानिक विद्वान की बात कहता हूँ। वह अपने यौवन काल से पहले ही विज्ञान की किसी साधना में लगा और सतत लगा रहा, संसार को विज्ञान के नये-नये नमूने देता रहा। इसी विज्ञान-साधना में उसका यौवन आकर चला भी गया और बुढ़ापे ने जीवन में प्रवेश किया। इसी बीच किसी ने उस से पूछा-"आपके परिवार का क्या हाल चाल है ?" वैज्ञानिक ने कहा-"परिवार ? मेरा परिवार तो मैं ही हूँ, मेरे ये यंत्र हैं, जो बिना कुछ कहे चुपचाप मेरा मन बहलाया करते हैं ।" पुनः प्रश्न किया गया-"क्या विवाह नहीं किया ?" वैज्ञानिक ने चकित से स्वर में उत्तर दिया-"मैं तो तुम्हारे कहने से ही आज विवाह की बात याद कर रहा हूँ। अभी तक मुझको विवाह याद ही नहीं आया। क्यों नहीं याद आया ? इसलिए, कि मनुष्य का मन एक साथ दो-दो एवं चार-चार काम नहीं कर सकता है । मन के सामने जीवन का एक ही काम महत्त्वपूर्ण होता है । मैं जिस साधना में लगा, उसमें इतना ओतप्रोत रहा और गहराई में डूबा रहा कि मैं दूसरे किसी संकल्प की ओर ध्यान ही न दे सका। मैंने जो वस्तु संसार के सामने रखी है, उसी के कण-कण में मेरी समस्त संकल्प शक्ति व्याप्त हो रही थी। तुमने बड़ी भूल की, जो आज विवाह का नाम याद दिला दिया ।" ____ मैं समझता हूँ, यह कोई अलंकार की बात नहीं है। यह जीवन की सत्यता और मन की पवित्रता का महान् रूपक आपके सामने है । इस प्रकार की एकनिष्ठा के बिना जीवन में उच्चता प्राप्त नहीं होती। चाहे कोई गृहस्थ हो या साधु, यदि वह ब्रह्मचर्य की साधना करना चाहता है, तो यों ही कोई मामूली-सी व्रत नियमों की दुकान लेकर बैठने से काम नहीं चलेगा। छोटी-मोटी बातें लेकर उपदेश करने से भी जीवन का ध्येय सिद्ध नहीं होगा। उसे ज्ञान की वृहत् साधना में पैठना पड़ेगा । जिनके जीवन में उँची भावना नहीं है, जिनके जीवन को भद्रबाहु, समन्तभद्र और सिद्धसेन दिवाकर जैसे महान् आचार्यों की ओर से प्रेरणा शक्ति नहीं मिल सकी है, वे किस प्रकार ब्रह्मचर्य की साधना करेंगे ? हजारों वर्ष पहले भद्रबाहु, दिवाकर और समन्तभद्र आदि की वे विचार धाराएँ प्रवाहित हुई, जो आज भी शास्त्रों के रूप में जनता को कल्याण पथं की ओर ले जा रही हैं । जिसने उन महान् आचार्यों से सम्बन्ध नहीं जोड़ा है, जिसने ज्ञान की उपासना में अपने मन को नहीं पिरो दिया है और वृहत्तर भावना के रंग में मन को नहीं रंग लिया है, उसका ब्रह्मचर्य कैसे चमकेगा ? केवल प्रतिज्ञा ले लेने से ही तो ब्रह्मचर्य की साधना सफल नहीं हो सकती । उसके लिए तो निष्ठा के साथ जीवन का कण-कण लगाना पड़ता है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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