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________________ विराट-भावना १०५ जीवन को महान् धारणा उनके सामने थी, अपने आत्म-कल्याण की और जन-कल्याण की उच्च भावना उनके सामने थी और संसार की बुराइयों से उन्हें लड़ना था। तो वह पहले अपने मन से लड़े, उन्होंने अपने मन के मन्दिर में झाड़ दी और एक भी धूल का कण नहीं रहने दिया । और उस पवित्रता के महान् आदर्श को दृष्टिपथ में रखते हुए, जहाँ भी गए, वहाँ के वायु-मण्डल को साफ करते गए। जहाँ घृणा और द्वेष की आग लग रही थी, वहाँ स्वयं उसे बुझाने के लिए गएं । इस पवित्रता की साधना में उनकी सारी शक्तियाँ इस प्रकार निरन्तर व्यस्त रहती थीं, कि उन्हें घर की याद करने के लिए अवकाश ही नहीं था। यदि वे क्षुद्र विचारों में बंधे रहते, तो उन्हें अवश्य घर की याद आती । और तो क्या, देह रूप मिट्टी के घर में सतत रह कर भी उन्होंने उस को कभी याद नहीं किया। यदि याद करते, तो उसकी जरूरतें भी याद आतीं। किन्तु वे महान् साधक देह-पिण्ड में रहते हुए भी विचारों की इतनी ऊंचाई पर पहुंच चुके थे, और उससे इतने ऊंचे उठ गए थे, कि उनका मन संसार को क्षुद्र वासनाओं की गलियों में इधर-उधर कहीं नहीं गया, एक मात्र शुद्ध लक्ष्य का महान् सूर्य ही उनके सामने सतत चमकता रहा । यही कारण था, कि दुःख आया तो दुःख में और सुख आया तो सुख में भी वे एक रस रह कर साधना पथ पर चलते रहे और चलते ही रहे। संसार की वासनाओं ने उन्हें रोकने की कोशिश भी की, किन्तु उनको भेद कर वे आगे ही चलते रहे । एक विद्यार्थी अध्ययन करता है । यदि उसके मानस-नेत्रों के समक्ष कोई महान् उज्ज्वल लक्ष्य चमकता है, यदि उसके स्वप्न विराट हैं, यदि उसका आदर्श कोई न कोई विराट युग-पुरुष है, तो वह एक दिन अवश्य ही महान् बनकर रहेगा। संसार की क्ष द्र वासनाएं उसे अपने घेरे में बन्द न रख सकेंगी, उसके विकास-पथ को अवरुद्ध नहीं कर सकेंगी। जिसका मन प्रतिक्षण विराट एवं भव्य संकल्पों की ज्योति से जगमगाता रहता है, वहाँ वासनाओं का अन्धकार भला कैसे प्रवेश पा सकता है ? और तो क्या, वासनाओं की क्षणिक स्मृति तक के लिए भी वहाँ अवकाश नहीं रहता है । इसके विपरीत यदि उसके संकल्प क्षद्र हैं, यदि जीवन की ऊंचाइयों की ओर उसकी नजर नहीं है, तो वह कंदम-कदम पर वासनाओं की ठोकरें खाएगा, औंधे मुह गिरेगा, और जीवन-क्षेत्र में किसी भी काम का न रहेगा। जिसका मन जीवन की भव्य कल्पनाओं से सर्वथा खाली पड़ा है, वहाँ वासनाओं का अन्धकार प्रवेश करता है, अवश्य करता है । क्ष द्र मन में ही वासनाओं की स्मृतियाँ डेरा डालती हैं। भारत के अन्यतम दार्शनिक वाचस्पति मिश्र के विषय में एक प्रसिद्धि है। जब उनका विवाह हुआ, तब अगले दिन ही उन्होंने ब्रह्मसूत्र के शांकर-भाष्य पर टीका लिखना प्रारम्भ कर दिया। वे दिन-रात टीका लिखते और विचारों में डूबे रहते । परन्तु उनकी सुशील और चतुर नवोढ़ा पत्नी ने उनके इस कार्य में कुछ भी बाधा न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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