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________________ १०४ ब्रह्मचर्य नि आदर्श रखना है और जिसके सामने वह बृहत्तर आदर्श रहेगा वही ब्रह्मचर्य में अविचल निष्ठा प्राप्त कर सकेगा। जिस साधक के समक्ष जीवन की बहुत बड़ी कल्पना रहती है, वह उस बृहत्तर कल्पना को लक्ष्य बना कर दौड़ता है और उसकी उपलब्धि के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देता है । सारा-का-सारा जीवन · उसके पीछे सहर्ष होम देता है। फलतः संसार की वासना उसे याद ही नहीं आती है। जब जीवन क्षुद्र रहता है और उसके सामने कोई उच्चतर, ध्येय नहीं होता, तब वहां वासना के कुत्ते भोंकते रहते हैं और इच्छाओं की बिल्लयों नोचा-नाची करती रहती हैं, मन में दिन रात एक प्रकार का कुहराम मचा रहता है । अन्तरात्मा की वाणी को ये कुत्ते और बिल्लियां दबा लेते हैं। ऐसी स्थिति में आत्मा की शुद्ध अन्तर्ध्वनि कैसे सुनी जा सकती है ? जब अन्तरात्मा की आवाज तेज होती है, तब वासना चुप होकर बैठ जाती है। उच्चतम आदर्शो की धारणा के रूप में आत्मा की आवाज को तेज किए बिना गुजारा नहीं है। संसार में जितने भी महापुरुष हो चुके हैं, उन्हें आप ध्यान में लाएँगे तो, मालूम होगा कि जब वे एक बार सब कुछ छोड़ कर साधना के पथ पर आए तो उन्हें फिर कभी घर याद नहीं आया। भगवान् महावीर भरी जवानी में घर छोड़ कर निकले । संसार का समस्त वैभव उन्हें सुलभ था। फिर भी उन्होंने दीक्षा ग्रहण की, वनों की राह ली। एक क्षण के लिए भी पीछे नहीं मुड़े, आगे ही बढ़ते गए। यदि कोई पूछता उनसे कि महाराज कभी घर की याद भी आई ? उत्तर मिलता--नहीं आई। प्राप्त की हुई चीज और भोगी हुई चीज क्यों याद नहीं आई ? वे सोने के सिंहासन और दर्शकों की आँखों को चकाचौंध कर देने वाले वे महल, उन्हें क्यों याद नहीं आए ? साधु-वृत्ति ग्रहण करने के बाद देवता डिगाने को आए और डराने लगे कि टुकड़े-टुकड़े कर देंगे । जैसे एक हाथी, चींटी को मसलता है, देवताओं ने भयंकर रूप बना कर भगवान् को तकलीफ दी। उस समय उनसे पूछा होता, कि राजमहल का आनन्द याद माया या नहीं ? उत्तर मिलता नहीं आया । अप्सराएं स्वर्ग से उतर-उतर कर, छह-छह माह तक अपनी पायलों की मादक झंकार मुखरित करती रहीं, तब पूछते कि घर की याद आई कि नहीं? तब भी उत्तर मिलता-नहीं आई। अब प्रश्न खड़ा होता है, कि याद न बाने का कारण क्या है ? कारण यही कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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