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________________ विराट भावना और उसके पश्चात् आनन्द नहीं है । इस प्रकार जो चीज क्षणभंगुर है, पलभर में विलीन हो जाने वाली है, उसमें सच्चा आनन्द नहीं मिल सकता। __कल्पना कीजिए, आप घर में एक सुन्दर जापानी खिलौना लेकर पहुंचते हैं। ज्यों ही आपने घर की देहली के भीतर पैर रखा और बालकों की निगाह खिलौने पर पड़ी, कि एक हंगामा मच गया। एक कहता है, यह खिलोना मुझे चाहिए और दूसरा कहता है, मुझे चाहिए। अब आप देखिए, कि खिलौना तो एक है और लेने वाले अनेक हैं । सब-के-सब बच्चे खिलौना लेने के लिए आतुर और व्यग्र हैं। सब आपके ऊपर झपटते हैं, आपको परेशान कर देते हैं । तब आपको आवेश आ जाता है। आप सोचते हैं-किसको हूँ, और किसको न दूं? फिर आप उन बच्चों को डॉट फटकार बतलाते हैं । और अन्त में उनमें से किसी एक को आप खिलौना दे देते हैं। तब क्या होता है ? उस बालक को तो आनन्द होता है और दूसरों के दिलों में आग-सी लग जाती है। यह बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। जब एक बालक खिलौने से खेलता है, तो दूसरे छीना-झपटी करते हैं और नतीजा यह होता है, कि खिलौना टूट जाता है । तब खिलौने में आनन्द मानने वाला वह बालक भी रोने लगता है और छटपटाता है । ऊपर से आप भी उसे कटु वाक्य-बाणों से बींधते हैं कि-नालायक कहीं का, अभी लिया और अभी तोड़ कर खत्म कर दिया । इस खिलौने के पीछे आनन्द की एक पतली-सी धार आई जरूर, मगर उसका मूल्य क्या है ? उसके पहले भी दुःख है और उसके बाद में भी दुःख है। बीच में थोड़ी देर के लिए अबोध बालक के मन में आनन्द की कल्पना अवश्य हुई, मगर, उससे पहले और उसके बाद में तो दुःख ही रहा । बीच के क्षणिक सुख की. अपेक्षा पहले और पीछे के दुःख का पलड़ा ही अन्ततः भारी रहता है। क्षण-भंगुर चीजों में सुख बिजली की चमक है, वह स्थायी प्रकाश नहीं है । ध्यान रहे, कि मैं आकाश में काली घटाओं के बीच चमकने वाली बिजली की बात कर रहा हूँ। मनुष्य अपने पिण्ड की ओर जाता है और उसे आनन्द देता है, उसकी छोटीमोटी ज़रूरतों को पूरा करता है । किन्तु उन नश्वर वस्तुओं से वास्तविक आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता। क्योंकि वास्तविक आनन्द अविनश्वर है, अजर एवं अमर है, और वह क्षुद्र रूप में नहीं रहता है । अतः वह नश्वर वस्तुओं से कैसे प्राप्त हो सकता है ? अतएव आध्यात्मिक अविनाशी आनन्द की बृहत् धारणा साधक के सामने है । उसकी ओर साधक का जो गमन है, उसी को हम ब्रह्मचर्य कहते हैं। अभिप्राय यह है, कि ब्रह्मचर्य की साधना के लिए जीवन के सामने बहुत बड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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