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ब्रह्मचर्य दर्शन यह ब्रह्मचर्य की महान् एवं विराट साधना है । ब्रह्मचर्य की साधना किस रूप में होती है, इस सम्बन्ध में छोटी-मोटी बातें मैं कह चुका हूँ। यह भी कह चुका हूँ कि ब्रह्मचर्य का अर्थ है-ब्रह्म में, परमात्मा में विचरण करना । ब्रह्म महान् है, बड़ा है। ब्रह्म से बढ़ कर और कौन महान् है ? भारतीय दर्शनों के, जिनमें जैनदर्शन भी सम्मिलित है, ईश्वर के रूप में जो विचार हैं, वे जीवन की अंतिम सर्वोत्कृष्ट परम पवित्रता के रूप में हैं, जहाँ एक भी अपवित्रता का अंश नहीं रहता । वह पवित्रता ऐसी पवित्रता है, जो अनन्त-अनन्त काल गुजर जाने के बाद भी अपवित्र नहीं बनती है । उसी अखण्ड और अक्षय पवित्रता का नाम जैनों की भाषा में ईश्वर, सिद्ध, बुद्ध, परमात्मा और मुक्त आदि है । उस के हजारों नाम भी रख छोड़ें, तो भी क्या ? पर, भगवान एक अखण्ड पवित्रता-स्वरूप है और वह पवित्रता कभी मलिन नहीं होने वाली है । एक बार वासना हट गई और शुद्ध स्वरूप प्रकट हो गया, तो फिर कभी उस पर वासना का प्रहार नहीं होने वाला है । इस प्रकार ब्रह्म से बढ़ कर अन्य कोई पवित्र
और महान् नहीं है । अस्तु, उस परम पवित्र महान् ब्रह्म में विचरण करना, या ब्रह्म अर्थात् शुद्ध रूप के लिए चर्या करना, ब्रह्मचर्य कहलाता है।
जब साधक ब्रह्मचर्य की उपयुक्त विशाल, विशद और महान् भावना को लेकर चलता है, तभी वह ब्रह्मचर्य की साधना में सफल हो सकता है। जब तक उसकी दृष्टि के सामने महान् भावना और उच्च धारणा नहीं है, तब तक वह चाहे, कि मैं ब्रह्मचर्य की साधना को सम्पन्न कर लू, तो वह ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि उसके जीवन का दृष्टिकोण छोटा रह गया है, क्षुद्र रह गया है। जिस साधक की भावनाओं के सामने महान् जीवन है, अर्थात् सर्वोत्तम जीवन की कल्पना है, उसी की साधना महान् बनती है।
. जो महान् है, बृहत् है, वही आनन्दमय है। जो . क्षुद्र है, अल्प है, वह आनन्दमय नहीं है। इस दृष्टिकोण से जब हम पिण्ड की ओर देखते हैं अथवा इस पिण्ड की आवश्यकताओं की ओर दृष्टिपात करते हैं, तो खाने, पीने और पहनने की कल्पनाएं बहुत छोटी-छोटी और मामूली जान पड़ती हैं। इस पिण्ड की जरूरतें और उनकी पूर्ति के साधन क्षणभंगुर हैं । आज मिले हैं और कल समाप्त हो जाने वाले हैं । अभी हैं और अभी नहीं हैं। सुन्दर से सुन्दर भोज्य पदार्थ सामने आया, उसे हाथ में लिया और जब तक जीभ पर रहा, तब कुछ ही क्षण तक, वह सुन्दर रहा, मधुर मालूम हुआ, किन्तु ज्यों ही गले के नीचे उतरा, त्यों ही उसकी सुन्दरता और मधुरता फिर गायब हो गई।
मिठास का आनन्द न पहिले है और न बाद में है । वह बीच में हमारी ज़बान की हद तक ही है। यह क्षणभंगुर आनन्द, आनन्द नहीं है । कम-से-कम उससे पहले
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