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________________ विराट-भावना १०१ दर्पण है । आप उसमें अपना मुंह देखना चाहते हैं, तो मुंह को जैसी आकृति बना कर आप दर्पण के सामने खड़े होंगे, वैसी ही अपनी आकृति आपको दर्पण में दिखाई देगी। मुख पर राक्षस जैसी भयंकरता लाकर देखेंगे तो राक्षस जैसा ही भयंकर रूप दिखाई देगा और देवता जैसा सौम्य रूप बनाकर देखेंगे, तो देवता जैसा ही भव्य रूप दिखाई देगा । दर्पण में जैसा भी रूप आप व्यक्त करेंगे, वैसा ही आपके सामने आजाएगा। अगर आप दर्पण को दोष दें कि उसने मेरा विकृत रूप क्यों दिखाया ? मेरा सुन्दर चेहरा क्यों नहीं दिखलाया ? और यदि आप दर्पण पर गुस्सा करें तो गुस्सा करने से क्या होगा ? आप उसे तोड़ दें, तो भी हल मिलने वाला नहीं है । यदि आप दर्पण में अपना सौन्दर्य देखना चाहते हैं, चेहरे की खूबसूरती देखना चाहते हैं, और सौम्य भाव देखना चाहते हैं, तो इसका एक ही उपाय है। आप अपने मुख को शान्त और सुन्दर रूप में दर्पण के सामने पेश कीजिए। दर्पण के सामने शान्त रूप में खड़े होंगे, तो वही शान्त रूप आपको देखने को मिलेगा । व्यक्ति का सम्बन्ध भी संसार के साथ, इसी प्रकार प्रतिबिम्ब-प्रतिबिम्बी का सम्बन्ध है । जैनधर्म ने इस सत्य का उद्घाटन बहुत पहिले ही कर दिया है। उसने कहां है कि तू संसार को जिस रूप में देखना चाहता है, पहले अपने आपको वैसा बना ले । तेरे मन में हिंसा है तो संसार में भी तुझे हिंसा मिलेगी। तेरे मन में असत्य है, तो तुझे असत्य ही मिलेगा । यदि तेरे मन में अहिंसा और सत्य है, तो तुझे भी अहिंसा और सत्य के दर्शन होंगे। यही बाप्त अस्तेय और ब्रह्मचर्य आदि व्रत्तों के सम्बन्ध में भी है। हाँ, तो प्रत्येक साधक को सर्वप्रथम हिंसा की दीवार तोड़नी होती है। उसके बाद असत्य, स्तेय और अब्रह्मचर्य की दुर्भेद्य दीवारों को भूमिसात् करना होता है। यदि साधक साधु है, तो उक्त दीवारों को पूर्णतया तोड़ डालता है। यदि साधक गृहस्थ है, तो वह अंशतः तोड़ता है । पूर्णतः या अंशतः जैसे भी हो, तोड़ना आवश्यक है । इनको तोड़े बिना आत्मा की स्वतन्त्र स्थिति का आनन्द वह प्राप्त नहीं कर सकता। प्रस्तुत प्रसंग ब्रह्मचर्य का है । अस्तु, जब साधक अब्रह्मचर्य की दीवार को तोड़ कर अपने आपको ब्रह्मचर्य की आनन्द भूमि में ले आता है, तो वह संसार को वासना की आंखों से देखना बन्द कर देता है, दूषित भावनाओं को तोड़ डालता है, संसार भर की स्त्रियों के साथ अपने को एक सात्विक एवं पवित्र सम्बन्ध से जोड़ लेता है। फिर वह जहाँ भी पहुंचता है, हर घर में, हर परिवार में, हर समाज में, सर्वत्र पवित्र भावनाओं का वातावरण स्थापित करता है और भूमण्डल पर एक पवित्र स्वर्गीय राज्य की अवतारणा करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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