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प्रवचन
विराट-भावना
श्रावक आनन्द, भगवान् महावीर के चरण-कमलों में उपस्थित होकर आत्मिक आनन्द के मंगलमय द्वार को खोल रहा है । वह आत्मिक आनन्द प्रत्येक आत्मा में अव्यक्त रूप में रहता है । अतः कोई भी आत्मा उससे शून्य नहीं है । फिर भी वह ऐसी चीज़ है कि जितनी निकट है, उतनी ही दूर है । वह हृदय की धड़कन से भी अधिक समीप होकर इतनी दूर है कि अनन्त अनन्त काल बीत जाने पर भी संसारी आत्मा उसके निकट नहीं पहुँच पाई है और उस निजानन्द को नहीं प्राप्त कर सकी है ।
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सच पूछो, तो हमारे अपने गलत विचार ही आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि में रुकावट डाल रहे हैं। मानव, उस आध्यात्मिक आनन्द को पाने के लिए एवं अन्दर में छिपे हुए असीम सहज आनन्द के लहराते हुए सागर में अवगाहन करने के लिए प्रयत्न करता है । किन्तु मिथ्या विचारों की रुकावट खड़ी हो जाती है और मानव भटक जाता है । जब तक विकारी विचारों की रुकावट को दूर न कर दिया जाए, इन टीलों को तोड़ न दिया जाए और ग़लत विचारों के रूप में सामने खड़े पहाड़ों को चकनाचूर न कर दिया जाए, तब तक उस आनन्द के सागर तक पहुँच नहीं हो सकती ।
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आनन्द, आनन्द की प्राप्ति के लिए ग़लत विचारों की दीवारों को तोड़ रहा है । उनमें पहली दीवार थी हिंसा की । एक तरफ मनुष्य है और दूसरी तरफ चैतन्य जगत है । जहाँ चैतन्य जगत है, वहाँ उसके साथ कोई न कोई सम्बन्ध भी है । वह सम्बन्ध मानव ने हिंसा के द्वारा जोड़ा और यह समझा, कि हम दूसरों को अपने अधीन बना लें, ताकि उन से अपना मनचाहा काम कराया जा सके। दूसरे हमारे सामने सिर झुका कर चलें, और जो इस प्रकार न चलें, उन्हें कुचल दें और बर्बाद कर दें । इस रूप में मनुष्य ने आनन्द और शान्ति प्राप्त करने की चेष्टा की ।
पर मनुष्य की यह चेष्टा ग़लत विचार पर आश्रित थी । इस ग़लत विचार के
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