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________________ विवाह और ब्रह्मचर्य , ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में प्रवेश कर जाने वाले माता-पिता को भी अपनी सन्तति का विवाह करना पड़ता है । परन्तु शास्त्र में 'पर- विवाहकरण' नामक एक अतिचार आता है । इसका अभिप्राय यह है, कि अगर दूसरों का विवाह किया-कराया जाए, तो ब्रह्मचर्य की साधना में अतिचार लगता है । एक समय ऐसा आया कि इस अतिचार के डर से लोगों ने अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह करना तक छोड़ दिया । इस प्रकार समाज में एक नया गड़-बड़ झाला पैदा हो गया । माता-पिता ने जब अपनी सन्तान के विवाह करने की ज़िम्मेदारी को भुला दिया और इस लिए समाज का वातावरण दूषित होने लगा, तो आचार्य हेमचन्द्र ने, उन लोगों को, जो गृहस्थ के रूप में जीवन यापन कर रहे थे, किन्तु अपनी सन्तान के विवाह की जवाबदारी को ढोने से इन्कार कर चुके थे, एक करारी फटकार बतलाई । वस्तुतः इससे ज्यादा भद्दा और कोई दृष्टिकोण नहीं हो सकता । यदि कोई अपने ब्रह्मचर्य के अतिचार से बचने के लिए अपने पुत्र और पुत्रियों के विवाह कर्म से अलग खड़ा हो गया है, फल-स्वरूप समाज में दूषित वातावरण पैदा हो गया है, अनैतिकता बढ़ रही है, तो इसका पाप किसको लग रहा है ? जो उत्तरदायित्त्व को ग्रहण करके भी उसे पूरा नहीं कर रहे हैं, उनके सिवाय और कौन इस स्थिति के लिए उत्तरदायी होंगे ? जिसे सन्तान के प्रति कर्त्तव्यपालन की संकट में नहीं पड़ना हो, उसे विवाह ही नहीं करना चाहिए, प्रत्युत पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। उसके लिए यही सर्वोत्तम उपाय है । किन्तु जिसने विवाह किया है, और सन्तान को जन्म देकर माता या पिता होने का गौरव प्राप्त किया है, उसने सन्तान का उत्तरदायित्त्व भी अपने माथे पर ले लिया है । अब यदि वह उससे इन्कार करता है, तो अनीति का पोषण करता है । हाँ, 'पर-विवाहकरण' अतिचार से बचने की इच्छा है, तो उसके मौलिक अर्थ में 'मैरिज ब्यूरो' मत खोलो, विवाह की एजेन्सी क़ायम मत करो और व्यर्थ ही बीच के घटक मत बनो । कुछ इससे ले लिया और कुछ उससे ले लिया और बेमेल विवाह करा दिया, यह जो विवाह कराने का धंधा है, यह ग़लत है और यह दोष है । किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि अपने पुत्रों या पुत्रियों का विवाह न किया जाए। जैनधर्म ऐसा पागल धर्म नहीं है, कि वह समाज से यह कहे कि उत्तरदायित्त्व को नहीं निभाना चाहिए और जीवन में किसी भी भ्रान्त मार्ग को अपना लेना चाहिए । जब-जब धर्म के विषय में ग़लतफ़हमियां हुई हैं, और ऐसी स्थितियाँ आई हैं, तब-तब धर्म बदनाम हुआ है। अभिप्राय यह है कि असीम वासनाओं को सीमित ६७ Jain Education International जैनधर्म की दृष्टि में विवाह जीवन का केन्द्रीकरण है । करने का मार्ग है, पूर्ण संयम की ओर अग्रसर होने का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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