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ब्रह्मचर्य-वर्शन
है, कि बाँध सारा-का-सारा टूट न जाए, धन-जन की हानि एवं क्षति न हो और भयानक बर्बादी होने का अवसर न आए ।
यही बात हमारे मन के बाँध की भी है । यदि किसी में ऐसी शक्ति आ गई है, कि वह पौराणिक गाथा के अनुसार अगस्त्य ऋषि बन कर सारे समुद्र को चुल्लू भर में पी जाए, तो वह समस्त वासनाओं को पी सकता है, हजम कर सकता है और वासनाओं के समुद्र का शोषण कर सकता है । शास्त्र की भाषा में वह व्यक्ति पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है।
इस प्रकार समस्त वासनाओं को पचा जाने, हजम करने, क्षीण कर देने की जो साधना है, वही पूर्ण ब्रह्मचर्य है । जिसमें वह महाशक्ति नहीं है, जो समस्त वासनाओं और विकारों को पचा नहीं सकता, उसके लिए विवाह के रूप में एक मार्ग रख छोड़ा गया है । सब ओर से ब्रह्मचर्य की अखण्ड दीवारें हैं, केवल एक ओर से,पति-पत्नी के रूप में विहित एवं नियत मार्ग से, वासना का पानी बह रहा है, तो संसार में कोई उपद्रव नहीं होता, कोई बर्बादी नहीं होती, सामाजिक मर्यादा स्वरूप बाँध के टूटने की नौबत भी नहीं आती, और जीवन की पवित्रता भी सुरक्षित रहती है।
भगवान् ऋषभदेव ने विकारों को पूर्णतया हजम करने की शक्ति न होने पर मन के बाँध में एक विवाह रूप-नाली रखने की बात कही है । और वह इस उद्देश्य से कही है, कि अपनी वासना को मनुष्य, पशु-पक्षी की तरह काम में न लाने लगे, ताकि मानव-समाज की ज़िन्दगी हैवानों की जिन्दगी बन जाए। इस तरह मूल रूप में, ब्रह्मचर्य की रक्षा का भाव विवाह के क्षेत्र में है।
यह मैं पहले ही कह चुका है, कि जिसने मानव जीवन के और ब्रह्मचर्य के महत्त्व को नहीं समझा है, उसकी बात अलग है । मैं उन हैवानों और पशुओं की बात नहीं कह रहा हूँ, जो मनुष्य की आकृति के हैं और मनुष्य की भाषा बोलते हैं
और मनुष्य के ही समान भोजन पान आदि के अन्य व्यवहार करते हैं, फिर भी अन्तरंग में जिनमें मनुष्यता नहीं, हैवानियत है और जो कुत्तों की तरह गलियों में भटकते फिरते हैं। मैं जीवन के महत्व को समझने वाले उन लोगों की ही बात कहता हूँ जो ब्रह्मचर्य और विवाह की मर्यादा का भली भाँति ज्ञान रखते हैं ।
मैंने शास्त्रों का जो चिन्तन और मनन किया है, वह मुझे यह कहने की इजाजत देता है, कि यदि विवाह ईमानदारी के साथ जवाबदारी को निभाने के लिए ग्रहण किया गया है, तो वह भी ब्रह्मचर्य की साधना का ही एक रूप है । विवाह कर लेने पर संसार भर के अन्य वासना-द्वार बन्द हो जाते हैं, और स्वस्त्री के रूप में केवल एक ही द्वार खुला रह जाता है । इस रूप में गम्भीर विचार करके जब विवाह स्वीकार किया जाता हैं, तभी विवाह की सार्थकता होती है। तभी वह साधना का रूप लेता है, अन्यथा नहीं।
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