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________________ ब्रह्मचर्य दर्शन एक बार दो दार्शनिक कहीं जा रहे थे। दोनों ने गुलाब का एक पौधा देखा। उनमें से एक ने कहा-"इस पौधे में कितने सुन्दर एवं महकते हुए फूल हैं ।" दूसरा बोला-"पर, देखो न काँटे कितने हैं इसमें ? जरा से पौधे में इतने काँटे ?" गुलाब का पौधा सामने खड़ा है। उसमें सुगन्धित एवं सुन्दर फूल भी हैं और नुकीले काँटे भी हैं । किन्तु दो आदमी जब उसके पास पहुँचे, तब दोनों के दृष्टिकोणों में अन्तर जरूर पड़ गया। एक की दृष्टि फूलों की सुन्दरता और महक की ओर गई और दूसरे की दृष्टि, नुकीले काँटों की ओर गई । इसी दृष्टि-भेद को लेकर दोनों दार्शनिकों के बीच कुछ मतभेद हो गया ।। इस प्रकार जब कोई भी द्वन्द्वात्मक वस्तु सामने आती है, तब विभिन्न विचारकों में उसको लेकर मतभेद हो जाया करता है। किसी की दृष्टि उस वस्तु के गुणों की ओर, तो किसी की दृष्टि उसके दोषों की ओर जाती है। हम यह मालूम करना चाहते हैं, कि यदि कोई विवाह के क्षेत्र में प्रवेश करता. है, तो वह ब्रह्मचर्य की दृष्टि से प्रवेश करता है अथवा वासना की दृष्टि से प्रवेश करता है। इस प्रश्न का उत्तर एकान्त में नहीं है। विवाह के क्षेत्र में दोनों चीजें हैंवासना भी और ब्रह्मचर्य भी। इस प्रकार दोनों चीजों के होते हुए भी, देखना होगा कि वहाँ ब्रह्मचर्य का अंश अधिक है या वासना का ? जब विवाह के क्षेत्र में प्रवेश किया है, तब क्या चीज अधिक है ? यहाँ मैं उसकी बात कर रहा हूँ, जो समझदारी के साथ विवाह के क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है । जो जीवन को समझ ही नहीं रहा है और फिर भी विवाह के बन्धन में पड़ गया है, उसकी बात मैं यहाँ नहीं कर रहा हूँ। भगवान् ऋषभदेव ने सब से पहले विवाह के क्षेत्र में प्रवेश किया। उनसे पहले युगलियों का जमाना था और उस जमाने में कुछ और ही तरह का जीवन था । उस समय के विवाह, विवाह नहीं थे। उस समय जीवन के क्षेत्र में दो स्त्री-पुरुष साथी बनकर चलपड़ते थे । किन्तु सामाजिक संविधान के रूप में विवाह जैसी कोई. बात उस युग में नहीं थी । अस्तु, जैन इतिहास की दृष्टि से, इस अवसर्पिणी काल में, भारतवर्ष में सर्वप्रथम ऋषभदेवजी का ही विवाह हुआ। उन्होंने कहा-"यदि तुम किसी को अपना संगी-साथी चुनना चाहते हो, चाहे स्त्री पुरुष को या पुरुष स्त्री को, तो उसे विवाह के रूपमें ही चुनना चाहिए । विवाह के अतिरिक्त दूसरे जो भी इस प्रकार के सम्बन्ध हैं उनमें नैतिकता नहीं है। प्रत्युत अनैतिकता है एवं व्यभिचार है।" यदि विवाह-सम्बन्ध की पवित्र ग्रंथि से बँधे हुए साथियों में, एक दूसरे के जीवन का उत्तरदायित्व ग्रहण करने की बुद्धि है, वासना की पूर्ति के लिए नहीं, किन्तु जीवन की राह को तय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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