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________________ विवाह और ब्रह्मचर्य यात्रा पूरी कर लूगा । किन्तु जो चलता नहीं और बैठा रहता है या भटकता ही रहता है, वह तो कभी भी यात्रा पूरी कर ही नहीं सकता। इस प्रकार आनन्द के जीवन की भूमिका, बीच की भूमिका है। वह आप लोगों (श्रावकों) की भूमिका है । यदि आप आनन्द के जीवन से अपने जीवन की तुलना करने लगें, तो आकाश और पाताल का अन्तर मालूम पड़ेगा, फिर भी उसकी और आपकी राह तो एक ही है । उसको जो दर्जा मिला था, वही दी सिद्धान्ततः आपको भी मिला है। आनन्द श्रावक ने ब्रह्मचर्य की दृष्टि से जो नियम लिया था, उसे पूर्ण ब्रह्मचर्य का नियम नहीं कहा जा सकता । उसने सोचा-"जब तक मैं गृहस्थावस्था में हूँ, तब तक मुझे दुर्बलताएं घेरे हुए हैं । जब तक मैं अपनी पत्नी का जीवन-साथी बन कर रह रहा हूँ, तब तक कदम-कदम चल कर ही जीवन की राह तय कर सकता हूँ।" इसलिए उसने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा तो ग्रहण की, मगर उसने पूर्ण ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा नहीं ली। उसने निश्चय किया कि आज से अपनी पत्नी के अतिरिक्त संसार की अन्य सभी स्त्रियों को मैं अपनी माता, बहिन और पुत्री समरगा। अब जरा विचार कीजिए, इस प्रतिज्ञा से वासना का कितना जहर कम हो गया । जहर से भरा एक समुद्र है । उसमें से सारा जहर निकल जाए, और केवल एक बूद जहर रह जाए, एक बूंद जहर रह तो अवश्य गया, मगर फिर भी यह स्थिति कितनी ऊंची है ? इतनी ऊँची, कि उसने समस्त संसार में पवित्रता की लहर दौड़ा दी है । ऐसा व्यक्ति यदि अपने घर में रहता है, या नाते-रिश्तेदारों के घर जाता है तो पवित्र ही आँखें रखता है और उसके हृदय से सब स्त्रियों के प्रति मातृभाव और भगिनी-भाव का निर्मल झरना बहता रहता है । ऐसी हालत में वह संसार के एक कोने से दूसरे कोने तक कहीं भी चला जाए, वह अपनी स्त्री के सिवाय संसार भर की स्त्रियों के प्रति एक ही-माता-बहिन एवं पुत्री की निर्मल दृष्टि रखेगा। इस प्रकार उसने कितना जहर त्याग दिया है। कितने पवित्र भाव अब उसके मन में आ गए हैं। एक तरह से उसके लिए सारी दुनियाँ ही बदल गई है । इस दृष्टिकोण से अगर आप विचार करेंगे,तो आपको पता चलेगा कि, जैन धर्म की दृष्टि में विवाह क्या चीज़ है ? जब कोई व्यक्ति गृहस्थ में रहता है, तब विवाह की समस्या उसके सामने रहती है। पर देखना है, कि जब वह विवाह के क्षेत्र में उतरता है, तब ब्रह्मचर्य की भूमिका से उतरता है या वासना की भूमिका से उतरता है ? यह प्रश्न एक विकट प्रश्न है, और एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। इसका समाधान प्राप्त करने के लिए अनेक गुत्थियों को सुलझाना पड़ता है और उनके सुलझाने में कभी-कभी बड़े-बड़े विचारक और दार्शनिक भी उलझ जाते हैं । शुभ अशुभ के द्वन्द्व में से कोई एक उचित निर्णय नहीं कर पाते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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