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________________ २ ब्रह्मचर्य दर्शन गृहस्थ हैं, तो भी संसार की ओर भागे जा रहे हैं । उनके मन में भेद-विज्ञान का दार्शनिक स्वरूप नहीं जाग रहा है । जीवन के महत्त्वपूर्ण पार्ट को अदा करने के लिए जितना विवेक होना चाहिए, वह नहीं उपलब्ध हो रहा है । वे जीवन को संसार के भोग-विलासों में ले आते हैं और बाहर में साधु या श्रावक बन कर भटका करते हैं । एक यात्री होता है, जिसके क़दम अपने लक्ष्य पर पड़ते हैं । और दूसरा होता है, भटकने वाला । वह सब ओर से परेशान तेज कदमों से दौड़ता भागता हुआ दिखाई देता है, किन्तु फिर भी वह यात्री नहीं है । पुरानी लोक गाथाओं में आता है, कि एक आदमी चला जा रहा है, चला क्या जा रहा है, दौड़ रहा है और पसीने में तर हो रहा है, बुरी तरह हाँफ रहा है । कभी किधर दौड़ता है, कभी किधर । कभी आगे की ओर भागता है, कभी पीछे की ओर । जिज्ञासु मालूम करना चाहता है, कि वह क्या कर रहा है ? आगे-पीछे क्यों दौड़ रहा है ? और पूछता है कि - "तुम कहाँ से आ रहे हो ?" भागने वाला कहता है "यह तो मालूम नहीं कि मैं कहाँ से आ रहा हूँ !" "अच्छा जा कहाँ रहे हो ?" "यह भी मालूम नहीं है !" "यह दौड़ क्यों लग रही है ?" "यह भी नहीं मालूम है !" " अच्छा भाई, तुम हो कौन ?” "यह भी पता नहीं है !" जिस पागल की यह दशा है, वह हजार जन्म ले ले, तो भी मंजिल को पा सकेगा ? क्या अपने लक्ष्य पर पहुँच सकेगा ? यह तो लक्ष्य की ओर गति करना नहीं है । लक्ष्य की ओर गति भटकने वाले की की होती है । इस प्रकार साधु के रूप में या गृहस्थ के रूप में जो भटकते हैं, वे जीवन की यात्रा को तय करने के लिए कदम नहीं बढ़ा रहे हैं । वे केवल भटक रहे हैं । उनकी गति को भटकना कहते हैं, यात्रा करना नहीं कहते : आनन्द श्रावक ने कौन-सी राह पकड़ी ? उसने साधु-जीवन की राह नहीं पकड़ी । उसने अपने आपको परख लिया, कि मेरी क्या योग्यता है, और मैं कितना एवं कैसा रास्ता तय कर सकता हूँ ? इसके लिए उसने अपने को जांचा, अपनी दुर्बलताओं का पता लगाया और अपनी बलवती शक्तियों का भी पता लगाया । उसने निर्णय कर लिया, कि मैं साधु-जीवन की उस ऊँची भूमिका पर चलने के योग्य नहीं हूँ । फिर भी मुझे जीवन की राह तय करनी है। कदम-कदम चलूँगा तब भी Jain Education International For Private & Personal Use Only क्या अपनी भटकना है, नहीं, यात्री www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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