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उत्तराध्ययन सूत्र
भोगामिसदोसविसण्णे
आसक्ति-जनक आमिषरूप भोगों हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे। में निमग्न, हित और निश्रेयस में बाले य मन्दिए मूढे विपरीत बुद्धि वाला, अज्ञ, मन्द बाई मच्छिया व खेलंमि॥ और मूढ जीव कर्मों से वैसे ही
बंध जाता है, जैसे श्लेष्म-कफ में
मक्खी । ६. दुपरिच्चया इमे कामा काम-भोगों का त्याग दुष्कर है,
नो सुजहा अधीरपुरिसेहि। __ अधीर पुरुषों के द्वारा कामभोग अह सन्ति सुव्वया साहू आसानी से नहीं छोड़े जाते । किन्तु जो जे तरन्ति अतरं वणिया व।।। स्वती साधु हैं, वे दस्तर कामभोगों को
उसी प्रकार तैर जाते हैं, जैसे वणिक
समुद्र को। 'समणा मु' एगे वयमाणा ___'हम श्रमण हैं'-ऐसा कहते हुए पाणवहं मिया अयाणन्ता। भी कुछ पशु की भाँति अज्ञानी जीव मन्दा नरयं गच्छन्ति। प्राण-बध को नहीं समझते हैं। वे मन्द बाला पावियाहिं दिधीहिं। और अज्ञानी पापदृष्टियों के कारण
नरक में जाते हैं।
८. 'न हु पाणवहं अणुजाणे जिन्होंने साधु धर्म की प्ररूपणा की
मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदक्खाणं।' है, उन आर्य पुरुषों ने कहा है-“जो एवारिएहिं अक्खायं प्राणवध का अनुमोदन करता है, वह जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नत्तो॥ कभी भी सब दुःखों से मुक्त नहीं हो
सकता है।"
९. पाणे य नाइवाएज्जा जो जीवों की हिंसा नहीं करता,
से 'समिए' त्ति वुच्चई ताई। वह साधक ‘समित'--'सम्यक् प्रवृत्ति तओ से पावयं कम्मं । वाला' कहा जाता है। उससे अर्थात् निज्जाइ उदगं व थलाओ॥ उसके जीवन में से पाप-कर्म वैसे ही
निकल जाता है, जैसे ऊँचे स्थान से जल।
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