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८- कापिलीय
१०. जगनिस्सिएहिं तसनामेहिं थावरेहिं नो सिमारभे दंड मणसा वयसा कायसा चेव ॥
भूएहिं च ।
११. सुद्धेसणाओ नच्चाणं
तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं । घासमेसेज्जा
जायाए
रसगिद्धे न सिया भिक्खाए ।
सेवेज्जा
सीयपिण्डं पुराणकुम्मासं । अदु वुक्कसं पुलागं वा जवणट्टाए निसेवए मंथुं ॥
१२. पन्ताणि चेव
१३. 'जो लक्खणं च सुविणं च अंगविज्जं च जे पउंजन्ति । न हु ते समणा वुच्चन्ति ।' एवं आयरिएहिं अक्खायं ॥
१४. इहजीवियं
पभट्ठा
ते कामभोग- रसगिद्धा उववज्जन्ति आसुरे काए ||
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अणियमेत्ता
समाहिजोएहिं ।
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जगत् के आश्रित - अर्थात् संसार में जो भी त्रस और स्थावर नाम के प्राणी हैं, उनके प्रति मन, वचन, काय - रूप किसी भी प्रकार के दण्ड का प्रयोग न करे ।
शुद्ध एषणाओं को जानकर भिक्षु उनमें अपने आप को स्थापित करे - अर्थात् उनके अनुसार प्रवृत्ति करे । भिक्षाजीवी मुनि संयमयात्रा के लिए आहार की एषणा करे, किन्तु रसों मूर्छ
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।
भिक्षु जीवन-यापन के लिए प्राय: नीरस, शीत, पुराने कुल्माष - उड़द, वुक्कस - सारहीन, पुलाक - रूखा और मंथु - बेर आदि का चूर्ण ही भिक्षा में ग्रहण करता है ।
" जो साधु लक्षण - शास्त्र, स्वप्नशास्त्र और अंग विद्या का प्रयोग करते हैं, उन्हें साधु नहीं कहा जाता है ” – ऐसा आचार्यों ने कहा है 1
जो वर्तमान जीवन को नियंत्रित न रख सकने के कारण समाधियोग से भ्रष्ट हो जाते हैं, वे कामभोग और रसों में आसक्त रहने वाले लोग असुरकाय में उत्पन्न होते हैं ।
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