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उत्तराध्ययन सूत्र
१५. तत्तो वि य उवट्टित्ता
संसारं बहुं अणुपरियडन्ति बहुकम्मलेवलित्ताणं बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं॥
__ वहाँ से निकल कर भी वे संसार में बहुत काल तक परिभ्रमण करते हैं। बहुत अधिक कर्मों से लिप्त होने के कारण उन्हें बोधि धर्म की प्राप्ति होना अतीव दुर्लभ है।
धन-धान्य आदि से प्रतिपूर्ण यह समग्र विश्व (लोक) भी यदि किसी एक को दे दिया जाए, तो भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं होगा। इतनी दुष्पूर है यह लोभाभिभूत आत्मा।
१६. कसिणं पि जो इमं लोयं
पडिपण्णं दलेज्ज इक्करस। तेणावि से न संतुस्से इइ दुप्पूरए इमे आया।
१७. जहा लाहो तहा लोहो
लाहा लोहो पवड्डई। दोमास - कयं कज्जं कोडीए वि न निट्ठियं ॥
जैसे-जैसे लाभ होता है. वैसे-वैसे लोभ होता है। लाभ से लोभ बढ़ता जाता है। दो माशा सोने से निष्पन्न होने वाला कार्य करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं से भी पूरा नहीं हो सका।
१८. नो रक्खसीसु गिज्झेज्जा
गंडवच्छासु ऽणेगचित्तासु। जाओ पुरिसं पलोभित्ता खेल्लन्ति जहा व दासेहिं ।
जिनके हृदय में कपट है, अथवा जो वक्ष में फोड़े के रूप स्तनों वाली हैं, जो अनेक कामनाओं वाली हैं, जो पुरुष को प्रलोभन में फँसा कर उसे खरीदे हुए दास की भाँति नचाती हैं, ऐसी वासना की दृष्टि से राक्षसी-स्वरूप साधना-विधातक स्त्रियों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।
१९. नारीसु नोवगिज्झेज्जा स्त्रियों को त्यागने वाला अनगार
इत्थीविप्पजहे अणगारे। उनमें आसक्त न हो। भिक्षु-धर्म को धम्मं च पेसलं नच्चा पेशल अर्थात् एकान्त कल्याणकारी तत्थ ठवेज्ज भिक्ख अप्पाणं॥ मनोज्ञ जानकर उसमें अपनी आत्मा को
स्थापित करे।
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