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________________ अट्ठमं उज्झयणं : आठवां अध्ययन काविलीयं : कापिलीय १. अधुवे संसारंमि मूल असासयंमि दुक्खपउराए । किं नाम होज्ज तं कम्मयं जेणाऽहं दोग्गइं न गच्छेज्जा | २. विजहित्तु पुव्वसंजोगं न सिणेहं कहिंचि कुव्वेज्जा । असिणेह सिणेहकरेहिं दोसपओसेहिं मुच्च भिक्खू ॥ तो नाण- दंसणसमग्गो हियनिस्साए सव्वजीवाणं । तेसिं विमोक्खणट्ठाए भासई मुणिवरो विगयमोहो | ४. सव्वं गन्थं कलहं च विप्पजहे तहाविहं भिक्खु । सव्वे पासमाणो न लिप्पई ताई ॥ कामजाए Jain Education International हिन्दी अनुवाद अध्रुव, अशाश्वत और दुःखबहुल संसार में वह कौनसा कर्म-अनुष्ठान है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ ? पूर्व सम्बन्धों को एक बार छोड़कर फिर किसी पर भी स्नेह न करे । स्नेह करने वालों के साथ भी स्नेह न करने वाला भिक्षु सभी प्रकार के दोषों और प्रदोषों से मुक्त हो जाता है ६५ 1 केवल ज्ञान और केवल दर्शन से सम्पन्न तथा मोहमुक्त कपिल मुनि ने सब जीवों के हित और कल्याण के लिए तथा मुक्ति के लिए कहा मुनि कर्मबन्धन के हेतुस्वरूप सभी प्रकार के ग्रन्थ (परिग्रह) का तथा कलह का त्याग करे । काम भोगों के सब प्रकारों में दोष देखता हुआ आत्मरक्षक मुनि उनमें लिप्त न हो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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