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________________ कापिलीय लोभ लोभ से नहीं, अलोभ से शान्त होता है। पिता की मृत्यु के बाद विधवा माँ का पुत्र कौशाम्बी निवासी ब्राह्मणकुमार कपिल, पिता के मित्र पं. इन्द्रदत्त के पास अध्ययन के लिए श्रावस्ती में रहता था। भोजन के लिए श्रेष्ठी शालिभद्र के यहाँ जाता था। श्रेष्ठी ने एक दासी नियुक्त कर दी थी, जो उसे भोजन कराती थी। धीरे-धीरे दोनों का परिचय बढ़ा और अन्त में वह परिचय प्रेम में बदल गया। एक बार श्रावस्ती में कोई विशाल जन-महोत्सव होना था, दासी ने उसमें जाना चाहा। किन्तु कपिल के पास उसे महोत्सव-योग्य देने के लिए कुछ भी तो नहीं था। उसे पता चला कि श्रावस्ती में एक धनी सेठ है, जो प्रात: काल सबसे पहले बधाई देने वाले व्यक्ति को दो माशा सोना देता है । कपिल सबसे पहले पहुँचने के इरादे से मध्यरात में ही घर से चल पड़ा। नगर-रक्षकों ने उसे चोर समझा और पकड़ कर राजा के समक्ष उपस्थित किया। कपिल शान्त था। राजा ने पूछा तो उसने सारी घटना ज्यों-की-त्यों सुना दी। राजा गरीब कपिल की सरलता एवं स्पष्टवादिता पर मुग्ध हो गया और उसे मन चाहा माँगने के लिए कहा। कपिल विचार करने के लिए कुछ समय लेकर पास के बगीचे में गया। काफी देर तक सोचता रहा मैं क्या और कितना माँगें ? पर वह कुछ निश्चित नहीं कर पा रहा था। सोची हुई स्वर्ण मुद्राओं की संख्या उसे बराबर कम लग रही थी। आगे बढ़-बढ़ कर वह सोचता रहा, सोचता रहा। दो माशा सोने से करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं पर पहुँच गया। फिर भी उसे सन्तोष नहीं था। विराम नहीं मिल रहा था । अन्त में चिन्तन ने सहसा दूसरा मोड़ लिया और ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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