________________
७-उरीय
२२. एवमद्दीणवं भिक्खु
अगारिं च वियाणिया। कहण्णु जिच्चमेलिक्खं जिच्चमाणे न संविदे?
इस प्रकार दैन्यरहित पराक्रमी भिक्षु और गृहस्थ को लाभान्वित जानकर कैसे कोई विवेकी पुरुष उक्त लाभ को हारेगा? और हारता हुआ कैसे नहीं संवेदन (पश्चात्ताप) करेगा?
देवताओं के काम-भोग की तुलना में मनुष्य के काम-भोग वैसे ही क्षद्र हैं, जैसे समुद्र की तुलना में कुश के अग्रभाग पर टिका हुआ जलबिन्दु।
२३. जहा कुसग्गे उदगं
समुद्देण समं मिणे। एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अन्तिए।
२४. कुसग्गमेत्ता इमे कामा
सन्निरूद्धमि आउए। कस्स हेडं पुराकाउं जोगक्खेमं न संविदे? ॥
मनुष्यभव की इस अत्यल्प आयु में कामभोग कुशाग्र पर स्थित जलबिन्द-मात्र हैं, फिर भी अज्ञानी किस कारण को आगे रखकर अपने लाभकारी योग-क्षेम को नहीं समझता
२५. इह कामाणियट्टस्स
अत्तटे अवरज्झई। सोच्चा नेयाउयं मग्गं जं भुज्जो परिभस्सई।
__ मनुष्य भव में काम भोगों से निवृत्त न होने वाले का आत्मार्थअपना प्रयोजन विनष्ट हो जाता है। क्योंकि वह सन्मार्ग को बार-बार सुनकर भी उसे छोड़ देता है।
२६. इह कामणियट्टस्स
अत्तटे नावरज्झई। पूइदेह-निरोहेणं भवे देवे त्ति मे सुयं ॥
__ मनुष्य भव में काम भोगों से निवृत्त होने वाले का आत्म-प्रयोजन नष्ट नहीं होता है। वह पूतिदेह-मलिन औदारिक शरीर के छोड़ने पर देव होता है-ऐसा मैंने सुना है।
२७. दड्ढी जुई जसो वण्णो
आउं सुहमणुत्तरं। भुज्जो जत्थ मणुस्सेसु तत्थ से उववज्जई॥
देवलोक से आकर वह जीव जहाँ श्रेष्ठ ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण, आयु और सुख होते हैं, उस मनुष्य-कुल में उत्पन्न होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org