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उत्तराध्ययन सूत्र
१७. दुहओ गई बालस्स
आवई वहमूलिया। देवत्तं माणुसत्तं च जं जिए लोलयासढे ।
१८. तओ जिए सई होइ
दुविहं दोग्गइं गए। दुल्लहा तस्स उम्मज्जा अद्धाए सुचिरादवि ॥
अज्ञानी जीव की दो प्रकार की गति हैं-नरक और तिर्यंच । वहाँ उसे वध-मूलक कष्ट प्राप्त होता है । क्योंकि वह लोलुपता और वंचकता के कारण देवत्व और मनुष्यत्व को पहले ही हार चुका होता है।
नरक और तिर्यंच-रूप दो प्रकार की दुर्गति को प्राप्त अज्ञानी जीव देव
और मनुष्य गति को सदा ही हारे हुए हैं। क्योंकि भविष्य में उनका दीर्घ काल तक वहाँ से निकलना दुर्लभ है।
इस प्रकार हारे हुए बालजीवों को देखकर तथा बाल एवं पंडित की तुलना कर जो मानुषी योनि में आते हैं, वे मूलधन के साथ लौटे वणिक् की तरह हैं।
१९. एवं जियं संपेहाए
तुलिया बालं च पंडियं। मलियं ते पवेसन्ति माणुसं जोणिमेन्ति जे॥
२०. वेमायाहिं सिक्खाहिं
जे नरा गिहिसुव्वया। उवेन्ति माणसं जोणि कम्मसच्चा हु पाणिणो।
जो मनुष्य विविध परिमाण वाली शिक्षाओं द्वारा घर में रहते हुए भी सुव्रती हैं, वे मानुषी योनि में उत्पन्न होते हैं। क्योंकि प्राणी कर्मसत्य होते हैं—कृत कर्मों का फल अवश्य पाते
२१. जेसिं तु विउला सिक्खा
मूलियं ते अइच्छिया। सीलवन्ता सवीसेसा अद्दीणा जन्ति देवयं ॥
जिनकी शिक्षा विविध परिमाण वाली व्यापक है, जो घर में रहते हुए भी शील से सम्पन्न एवं उत्तरोत्तर गुणों से युक्त हैं, वे अदीन पुरुष मूलधनरूप मनुष्यत्व से आगे बढ़कर देवत्व को प्राप्त होते हैं।
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