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उत्तराध्ययन सूत्र
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एक बिन बछड़ा एक भयानक दृश्य देखता है और भय से कांप जाता है माँ से आकर पूछता है- “माँ ! मालिक ने आज मेमने को अतिथि के स्वागत में काट दिया है। क्या मैं भी इसी तरह काटा जाऊँगा ?” माँ ने कहा- “नहीं, बेटा ! तू तो सूखी घास खाकर जीता है। जो रूखा-सूखा खाकर जीता है, उसे यह दु:ख सहन नहीं करना पड़ता है। जो मन चाहे गुल छर्रे उड़ाते हैं, एक दिन उन्हीं के गले काटे जाते हैं । "
भोगों की आसक्ति साधक के जीवन के सार सर्वस्व का संहार कर
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सुस्वादु डालती है।
२ -- एक भिखारी ने बड़ी मुश्किल से एक हजार कार्षापण (प्राचीन समय का एक क्षुद्र सिक्का | बीच काकिणी में एक कार्षापण बदला जाता था) इकट्ठे किए थे। वह अपने गाँव लौट रहा था । खाने-पीने की व्यवस्था के लिए उसने कुछ काकिणी अपने पास रख छोड़ी थी। एक दिन गाँव में कहीं ठहरा। वहीं एक काकिणी भूल गया और चल दिया । रास्ते में जाते हुए काकिणी याद आयी तो एक हजार कार्षापण वहीं कहीं छुपाकर वह काकिणी लेने के लिए वापस लौट पड़ा। वह काकिणी उसे नहीं मिली। उसे कोई उठा ले गया होगा । वह निराश लौटा, जहाँ उसने एक हजार कार्षापण छुपा कर रखे थे । उसके दुःख की कोई सीमा न रही, जब उसने देखा कि एक हजार कार्षापण में से एक कार्षापण भी वहाँ नहीं है । कोई रखते समय देख रहा था, पीछे से चुरा ले गया ।
जो अल्प सुख के लिए दिव्य सुखों को छोड़ते हैं, वे उक्त भिखारी की तरह अन्त में दुखी होते हैं
३–चिकित्सकों ने एक रोगी राजा को आम न खाने का सुझाव दिया था । एक दिन राजा मन्त्री के साथ जंगल में था । वहाँ पेड़ पर पके हुए मीठे आम लगे देखे तो राजा चिकित्सकों के सुझाव को भूल गया । मन्त्री ने रोका भी, किन्तु राजा ने उसकी बात न मानी और आम खा लिया । आम राजा के लिए अपथ्य था । अतः वह वहीं मर गया । क्षणिक सुख के लिए राजा ने अपना अनमोल जीवन गँवा दिया ।
४ - मनुष्य जीवन के सुख ओस के जलकण की तरह अल्प और क्षणिक हैं । और दिव्य सुख सागर के जल की तरह विशाल और स्थायी हैं ।
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