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उरथ्रीय पश्चात्ताप और मृत्यु का कारण आसक्ति है।
अनासक्ति में सुख है।
इन्द्रियाँ क्षणिक हैं। इन्द्रियों के विषय क्षणिक हैं। फलत: इन्द्रियों से मिलने वाला सुख भी क्षणिक है। इन क्षणिक सुखों के प्रलोभनों को, इनके भविष्य में होने वाले विकृत परिणामों को साधक न भूले । ऐसा न हो कि भ्रान्तिवश साधक थोड़े-से के लिए अपनी कोई बड़ी हानि कर ले। इस विषय को इस अध्ययन में बहुत सुन्दर एवं व्यावहारिक पांच सरल उदाहरणों से स्पष्ट किया है। वे पांच उदाहरण इस प्रकार हैं
१-एक मालिक मेमने (भेड़ का बच्चा मेंढा) को बहुत अच्छा ताजा और हरा स्निग्ध भोजन खिलाता है। मेमना पुष्ट होता रहता है । मालिक के पास एक बछड़ा और गाय भी है । मालिक गाय को सूखी घास देता है । बछड़ा मालिक के इस व्यवहार को देखता है। अपनी प्यारी माँ से मालिक के व्यवहार की शिकायत करता है- "माँ ! मालिक मेमने को कितना अच्छा खिलाता है और तुम्हें केवल सूखी घास देता है। जबकि तुम उसे दूध देती हो। ऐसा क्यों है? और मेरे साथ भी तो कोई अच्छा सलूक नहीं है इसका । मुझे भी इधर-उधर से रूखा-सूखा चारा डाल देता है, और बस....।” गाय अपने प्रिय बछड़े को समझाती है-“मालिक उसे अच्छा खिलाता है, उसका कारणं है। बेटा, जिसकी मृत्यु निकट है, उसको बहुत अच्छा मनचाहा खिलाया ही जाता है। कुछ ही दिनों में देखना, क्या होने वाला है इसका।"
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