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________________ उत्तराध्ययन सूत्र ११. न चित्ता तायए भासा कओ विज्जाणुसासणं? विसन्ना पाव-कम्मेहिं बाला पंडियमाणिणो॥ विविध भाषाएँ रक्षा नहीं करती हैं, विद्याओं का अनुशासन भी कहाँ सुरक्षा देता है? जो इन्हें संरक्षक मानते हैं, वे अपने आपको पण्डित मानने वाले अज्ञानी जीव पाप कर्मों में मग्न हैं, डूबे हुए हैं। जो मन, वचन और काया से शरीर में, शरीर के वर्ण और रूप में सर्वथा आसक्त हैं, वे सभी अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं। १२. जे केई सरीरे सत्ता वण्णे रूवे य सव्वसो। मणसा कायवक्केणं सव्वे ते दुक्खसंभवा ॥ १३. आवन्ना दीहमद्धाणं संसारम्मि अणंतए। तम्हा सव्वदिसं पस्स अप्पमत्तो परिवए। उन्होंने इस अनन्त संसार में लम्बे मार्ग को स्वीकार किया है। इसलिए सब ओर (सर्वदिशाओं को—जीवों के उत्पत्ति स्थानों को) देख-भालकर साधक अप्रमत्त भाव से विचरण करे । ऊर्ध्व (मुक्ति का) लक्ष्य रखने वाला साधक कभी भी बाह्य विषयों की आकांक्षा न करे । पूर्व कर्मों के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे । १४. बहिया उड्मादाय नावकंखे कयाइ वि। पुवकम्म - खयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे । १५. विविच्च कम्मुणो हेडं कालकंखी परिव्वए। मायं पिडस्स पाणस्स कडं लभ्रूण भक्खए॥ प्राप्त अवसर का ज्ञाता साधक कर्म के हेतुओं को दूर करके विचरण करे । गृहस्थ के द्वारा अपने लिए तैयार किया गया आहार और पानी आवश्यकतापूर्ति-मात्र उचित परिमाण में ग्रहण कर सेवन करे। १६. सन्निहिं च न कव्वेज्जा लेवमायाए संजए। पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परव्विए। साधु लेशमात्र भी संग्रह न करे, पक्षी की तरह संग्रह से निरपेक्ष रहता हुआ पात्र लेकर भिक्षा के लिए विचरण करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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